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भ० शांतिनाथजी--पूर्वभव वर्णन
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साथ हुआ। कनकश्री की कुक्षि से एक महान् पराक्रमी पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम 'शतबल' रखा गया । वह महाबली था।
एक समय महाराजा क्षेमंकर अपने पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, मन्त्री और सामन्तों के साथ सभा में बैठे थे। उस समय ईशानकल्प वासी चित्रचूल नाम का एक मिथ्यात्वी देव उस सभा में प्रकट हुआ। देव-सभा में वज्रायुध के सम्यक्त्व की दृढ़ता की प्रशंसा हुई थी। किन्तु चित्रचूल को यह प्रशंसा सहन नहीं हुई, न विश्वास ही हुआ। वह तत्काल महाराज क्षेमंकर की राजसभा में उपस्थित हुआ। उसने आते ही सभा को सम्बोधित करते हुए कहा;--
"राजेन्द्र और सभासदों ! संसार में न पुण्य है, न पाप । स्वर्ग, नर्क, जीव, अजीव और धर्म-अधर्म कुछ भी नहीं । मनुष्य, आस्तिकता के चक्कर में पड़ कर व्यर्थ ही क्लेश एवं कष्ट भोगता है। इसलिए धर्म पुण्य और परलोक की मान्यताओं को त्याग देना चाहिए।"
देव के ऐसे नास्तिकता पूर्ण वचन सुन कर वज्रायुध बोला;
"अरे देव ! तुम ऐसी मिथ्या बातें क्यों कह रहे हो? यह तो प्रत्यक्ष से भी विरुद्ध है । तुम स्वयं अवधिज्ञान से अपने पूर्वभव के सुकृत के फल को देखो । तुम्हारा यह देव सम्बन्धी वैभव, तुम्हारी बात को मिथ्या सिद्ध कर रही है । तुमने पूर्व के मनुष्य-भव को छोड़ कर यह देव-भव प्राप्त किया है । यदि जीव नहीं हो, तो भव किसका ? पूर्व का मनुष्य-भव और वर्तमान देवभव, परलोक होने पर ही हुआ। यदि परलोक नहीं होता, तो यह देवभव भी नहीं होता। इस प्रकार मनुष्य-लोक रूपी यह भव और परलोक रूपी देवभव प्रत्यक्ष ही सिद्ध है और यह सभी सुकृत का फल है । इसलिए ऐसा नास्तिकता पूर्ण मिथ्यात्व छोड़ देना चाहिए।"
वज्रायुध की सम्यक् वाणी सुन कर देव निरुत्तर हुआ और प्रतिबोध पाया । देव ने पूछा;--
"महानुभाव ! आपने ठीक ही कहा है। बहुत ठीक कहा है । आपने मेरा मिथ्यात्व छुड़ा कर मेरा उद्धार किया। आपने मुझ पर एक पिता और तीर्थंकर के समान उपकार किया है । मैं चिरकाल से मिथ्यात्वी था । आपके दर्शन मेरे लिए अमित लाभकारी हए। अब आप मुझे सम्यक्त्व दान कर उपकृत करें।"
वज्रायुध ने उस देव को धर्म का स्वरूप समझाया और सम्यक्त्वी बनाया। चित्र. चूल देव अत्यंत प्रसन्न हुआ और इच्छित वस्तु माँगने का निवेदन किया । वज्रायध ने
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