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भ० शांतिनाथजी -वासुदेव-बलदेव नर्तकियों के रूप में
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तुमने दासियों को भेजने में विलम्ब किया, तो यह मृत्यु को निमन्त्रण देने के समान होगा और तुम राज्य-भ्रष्ट किये जा कर निकाल दिये जाओगे।"
दूत की बात सुन कर दोनों भ्राताओं को क्रोध तो आया, किंतु उन्होंने उसे प्रकट नहीं होने दिया और हँसते हुए राजदूत से कहने लगे ;-.
“महाराजा दमितारि की भेंट के योग्य तो मूल्यवान् रत्न, उत्तम जाति के अश्व और गजराज हो सकते हैं, दासियाँ नहीं । किंतु महाराज यही चाहते हैं, तो हम दे देंगे। तुम अभी विश्राम करो। संध्या के समय दोनों दासियाँ तुम्हारे पास आ जायगी।"
राजदूत संतुष्ट हो कर विश्राम-स्थान पर चला गया।
वासुदेव-बलदेव नर्तकियों के रूप में
दोनों बन्धु, महाराजा दमितारि और उसके वैभव को प्रत्यक्ष देखना चाहते थे। उन्होंने तत्काल योजना बनाई और राज्य-भार मन्त्रियों को सौंप दिया। फिर दोनों ने विद्याबल से बर्बरी और किराती का रूप बनाया और दूत के पास आ कर कहने लगी;---
"हमें आपके साथ, महाराजा दमितारि की सेवा में पहुँचने के लिए महाराजा ने भेजा है । अतएव चलिये । हम तय्यार हैं।"
राजदूत प्रसन्न हुआ और दासी रूपधारी दोनों महाभुज योद्धाओं को ले कर रवाना हुआ। राजधानी में पहुँचते ही महाराजा के सामने उपस्थित किये गये। दमितारि, सुन्दर. तम नृत्यांगना रूपी योद्धाओं को देख कर संतुष्ट हुआ और शीघ्र ही नाटक का आयोजन करने की आज्ञा दी।
महाराजा की आज्ञा होते ही नाट्य-सुन्दरी बने हुए दोनों भ्राता रंगभूमि में आये और प्रत्याहारादि अंग से नाटक का पूर्वरंग जमाने लगे । रंगाचार्य ने पुष्पांजलि से रंग पूजा की। गायिकादि परिजन यथास्थान बैठे। नट ने आ कर नन्दी-पाठ किया और अभिनय का प्रारम्भ किया गया। विविध रसों के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट रूप, इस उत्तमता से उपस्थित किये कि दर्शक मंत्रमुग्ध हो गए। विदूषक के दृश्य भी अपने रूप, चेष्टा एवं वचनों से हास्य की सरिता बहाने लगे। कोई बड़े पेट वाला, बड़े दांत वाला, लंगड़ा, कबडा आदि विविध रूप लिये हुए. कोई बगल बजा कर निरक्षरी ध्वनि निकालता है, तो कोई नासिका बजाता है । दूसरों की नकल कर के हँसाने वाले रूप भी दर्शक-सभा का भरपुर
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