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तीर्थङ्कर चरित्र
देखने पर उसके मन में विचार हुआ कि--"अहा ! यह वेश्या कितनी सौभाग्यशाली है कि इसके रूप पर मुग्ध हो कर ये दोनों राजकुमार युद्ध कर रहे हैं । यदि मेरे तप-संयम का फल हो, तो में भी एसा सौभाग्य प्राप्त करूं।" इस प्रकार निदान कर के, उसकी शुद्धि किये बिना ही मर कर सोधर्म कल्प में विपुल समृद्धि वाली देवी हुई।
रानी कनकसुन्दरी का जीव, भव-भ्रमण करता हुआ, दानादि शुभ योग के फलस्वरूप तुम मणिकुण्डली नाम के राजा हुए हो । कनकलता और पद्मलता भी भव-भ्रमण करती हुई रत्नपुर नरेश के इन्दुसेन और बिन्दुसेन नाम के राजकुमार हुए और निदान करने वाली साध्वी पद्मा, प्रथम स्वर्ग से च्यव कर कौशाम्बी की अनंतमतिका वेश्या हुई। उस वेश्या के लिए इस समय रत्नपुर के देवरमण उद्यान में इन्दुसेन और बिन्दुसेन आपस में युद्ध कर रहे हैं।"
इस प्रकार भगवंत के मंह से पूर्वभव का वत्तांत सून कर, पूर्व-स्नेह के कारण तुम्हें युद्ध से विमुख करने के लिए मैं यहाँ आया हूँ। मैं तुम्हारे पूर्वभव की माता हूँ और यह अनंतमतिका तुम्हारी पूर्वभव की बहिन है । इस संसार में मोह का ऐसा खेल है। जन्मान्तर के पर्दे में छुपे हुए प्राणी, अपने पूर्वभव के माता, पिता, भाई, भगिनी आदि को नहीं पहिचान सकता और मोह के अन्धकार में ही भटकता रहता है । अब तुम इस अन्धकार से निकलो और निर्वाण की ओर ले जाने वाली दीक्षा ग्रहण करो।"
राजकुमार उपरोक्त कथन सुन कर स्तंभित रह गए। उनके मोह का क्षयोपशम हआ। इधर माता-पितादि की मृत्यु के आघात ने भी संसार के प्रति घृणा जाग्रत कर दी। वे चार हजार राजाओं के साथ धर्मरुचि अनगार के पास दीक्षित हो गए। चारित्र और तप का उत्कृष्ट पालन कर के वे मोक्ष प्राप्त हुए और श्रीसेन आदि चारों युगलिक, मनुष्य भव पूर्ण कर के प्रथम स्वर्ग में देव हुए ।
वैताढ्य पर्वत पर 'रथनूपुर चक्रवाल' नाम का नगर था। ज्वलनजटी वहाँ का राजा था । 'अर्ककीर्ति' नाम का युवराज, वीर एवं योद्धा था। ‘स्वयंप्रभा' उसकी छोटी बहिन थी। वह अनुपम सुन्दरी थी। उसका लग्न त्रिपृष्ट वासुदेव के साथ हुआ था। वासु. देव ने इस उपलक्ष में ज्वलनजटी को विद्याधरों की दोनों श्रेणियों का राज्य दे कर अधिपति बना दिया था। विद्याधर नरेश मेघवन की ज्योतिर्माला नाम की पुत्री, युवराज अर्ककीति को ब्याही गई थी। श्रीसेन राजा का जीव प्रथम स्वर्ग से च्यव कर ज्योतिर्माला की कुक्षि में आया और पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका अप्रतिम तेज देख कर उसका नाम ' अमिततेज' रखा । अर्ककीर्ति को राज्यभार दे कर महाराज ज्वलनजटी ने चारण
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