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________________ ३०० तीथङ्कर चरित्र सनत्कुपार ५०००० वर्ष कुमारपने, ५०००० वर्ष मांडलिक राजापने, १०००० वर्ष दिग्विजय में, ९०.०० वर्ष चक्रवर्ती-सम्राटपने और १००००० वर्ष संयम-पर्याय में, इस प्रकार कुल ३००००० वर्ष का आयु पूर्ण कर के मुक्ति को प्राप्त हुए । + त्रि. श. पु. और 'चउप्पन्न महापुरिस चरियं' आदि में सनतकुमार चक्रवर्ती के लिए भी नामक तीसरे देवलोक में जाने का उल्लेख है। पूज्यश्री घासीलालजी म. सा. ने भी उत्तराध्ययन सूत्र अ. १८ भा. ३ की टीका पृ.१८० में चक्रवर्ती मघवा की और पृ. २११ में सनत्कुमार की गति तीसरे देवलोक की ही बताई है। पूज्य आचार्य श्री हस्तीमल्ल जी म. सा. ने भी अपने 'जैन धर्म के मौलिक इतिहास' प्रथम भाग पृ. ११. और ११२ में इसी मान्यता का अनसरण किया है। किन्तु दूसरी धारणा के अनुसार ये दोनों चक्रवर्ती भी उसी भव में मोक्षगामी हुए हैं। उत्तराध्ययन अ. १८ में जिन राजषियों का उल्लेख हुआ, वे सभी तद्भव मोक्षगामी माने जाते हैं । स्थानांगसूत्र ४.-१ में अंतक्रिया के निरूपण में, तीसरी अंतक्रिया के उदाहरण में श्री सनत्कु र चक्रवर्ती को उपस्थित किया है। मलपाठ में उनके लिये स्पष्टाक्षरों में लिखा है कि-"दोहेणं परियाएणं सिज्झइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेइ"-दीर्घ-पर्याय (लम्बकाल तक) संयम का पालन कर के सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए और समस्त दुःखों का अंत किया। यह मूलपाठ श्री सनतकुमार चक्रवर्ती को उसी भव में मुक्त होने वाले बतलाता है और अंतक्रिया' शब्द भी अपना अर्थ "भवान्त, कर्मों का अन्त एवं संसार का अंत करने वाली क्रिया" होता है। यों तो विरति मात्र भव का अन्त करने वाली है, भले ही अनेक भव के बाद अन्त हो । किन्तु स्थानांग का पाठ उसी भव में अन्त करने वाली क्रिया से सम्बधित लगता है। अन्य तीन क्रियाओं के उदाहरण भी उसी भव में मुक्ति पाने वाली भव्यात्माओं के हैं । इस सूत्र के टीकाकार ने जो-“दीर्घपर्यायेण च सिद्धस्त्यद्धवे सिद्धयभावेन भवान्तरे सेत्स्यमानत्वादिति" लिखा है। यह उनकी धारणा होगी, सूत्र का अर्थ नहीं। बाद के कुछ विद्वानों ने भी उन्हीं का अनुसरण किया लगता है। पू. श्री जयमलजी म. सा. ने अपनी 'अनंत चोवीसी' में--"वली दसे चक्रवर्ती, राज-रमणी ऋद्धि छोड़ । दसे मुक्ति पहोंचा, कुल ने शोभा चहोड़।" लिखा है। 'जैन सिद्धांत बोल संग्रह' भाग १ प. २३९ में भी तीसरी अन्तक्रिया करने के उदाहरण में श्री सनत् कुमार चक्रवर्ती को 'मोक्षगामी' लिखा है। उत्तराध्ययन सूत्र का तात्पर्य एवं स्थानांग सूत्र की अन्तक्रिया देखते हुए हमें तो श्री सनत्कुमार चक्रवर्ती का उसी भव में मक्ति पाना संगत लगता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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