________________
सनत्कुमार चक्रवर्ती का अलौकिक हप
कुमार बेले-बेले पारणा करने लगे । अरस, विरस एवं तुच्छ आहार के कारण शरीर में विविध प्रकार की व्याधि उत्पन्न हो गई । व्याधियों के प्रकोप से भी वे उत्तममुनि विच. लित नहीं हुए और बिना औषधोपचार के ही समभावपूर्वक रोगातंक को सहन करने लगे। इस प्रकार रोग-परीषह को सहन करते हुए सात सौ वर्ष व्यतीत हो गए । तप के प्रभाव से उन महर्षि को अनेक प्रकार की लब्धियाँ प्राप्त हो गई।
तपस्वीराज श्री सनत्कुमार के विशुद्ध तप के प्रति शकेन्द्र के हृदय में भक्ति उत्पन्न हुई । उन्होंने अपनी देव-सभा में महर्षि की प्रशंसा करते हुए कहा कि
"अहो, श्री सनत्कुमार कितने उत्तम-कोटि के त्यागी हैं । चक्रवर्ती की राज्य-लक्ष्मी को धूल के समान त्याग कर वे साधु बने । उग्र तप करते हुए शरीर में बड़े-बड़े असह्य रोग उत्पन्न हो गए, किंतु वे उनका प्रतिकार नहीं करते । उनके खुद के पास ऐसी अनेक लब्धियाँ हैं कि जिनके प्रयोग से, क्षण भर में सभी रोग नष्ट हो कर शरीर निरोग बन जाय, फिर भी वे रोग का परीषह बड़ी धीरता के साथ सहन कर रहे हैं।
__ शकेन्द्र स्वयं धर्मात्मा है । उन्होंने खुद ने पूर्वभव में धर्म की उत्तम आराधना की थी। उनमें धर्मात्माओं के प्रति अनुराग है । जब उनके अवधि-पथ में किसी विशिष्ट गुणसम्पन्न आत्मा के उत्तम गुण आ जाते हैं, तो वे उनका अनुमोदन करते हैं। आज भी उन्होंने गुणानुराग से प्रेरित हो कर महामुनि सनत्कुमारजी के गुणगान किये थे। किन्तु उन्हीं विजय और वैजयंत देव को यह बात नहीं रुची । उन्होंने सोचा--" महारोगों से पीड़ित व्यक्ति के सामने यदि कोई अमोघ औषधी ले कर उपस्थित हो, तो भी वे उपेक्षा कर दे, यह बात जॅचती नहीं।" वे दोनों वैद्य का रूप बना कर तपस्वीराज श्री सनत्कुमार के सामने आये और औषधी लेने का आग्रह करने लगे । तपस्वीराज ने उनसे कहा;--
'वैद्यों ! मुझे द्रव्य-रोग की चिन्ता नहीं है । यदि तुम भाव-रोग की चिकित्सा कर सकते हो, तो करो। ये भाव-रोग जन्मान्तर तक पीछा नहीं छोड़ते हैं । द्रव्य-रोग की दवा तो मेरे पास भी है । लो देखो"-यों कह कर महर्षि ने अपनी अंगुली अपने कफ से लिप्त की । वह तत्काल निरोग एवं स्वर्ण के समान कान्ति वाली बन गई। यह देख कर दोनों देव, महर्षि के चरणों में झुके । वन्दन करने के बाद बोले;
"ऋषीश्वर ! हम वे ही देव हैं, जो इन्द्र की प्रशंसा से अविश्वासी बन कर आपका रूप देखने आये थे । आज भी इन्द्र द्वारा आपकी उत्तम साधना की प्रशंसा सुन कर हम आये हैं और आपकी परीक्षा कर के पूर्ण संतुष्ट हो कर जा रहे हैं।" वंदना कर के देव चले गए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org