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चक्रवर्ती सनत्कुमार
चली और धूल उड़ी । खोज करने वालों का आगे बढ़ना रुक गया। उनकी आँख. धूल उड़ कर गिरने के कारण बन्द हो गई थी। जब आँधी थमी और धूल उड़नी बन्द हुई, तो उन्होने देखा कि घोड़े के पाँवों के चिन्ह मिट चुके थे। उड़ी हुई धूल ने सभी चिन्ह मिटा दिये । अब उनकी खोज का मार्ग विशेष कठिन हो गया । सभी इधर-उधर बिखर कर खोज करने लगे। महेन्द्रसिंह ने महाराजा अश्वसेन को समझा कर लौटा दिया और स्वयं खोज करने के लिए आगे बढ़ा । उसमें मित्र को खोजने की एक-मात्र धुन थी । अन्य खोज करने वाले तो इधर-उधर भटक कर लौट गए, किन्तु महेन्द्रसिंह आगे बढ़ता ही गया। भूख लगती, तो वृक्षों के फल खा लेता, पानी पी लेता, कहीं कुछ विश्राम करता और आगे बढ़ता । वह आस-पास की झाड़ी, गुफाएँ, टेकरे, वनवासियों के झोंपड़े आदि में खोज करता
और विशाल वृक्षों पर चढ़ कर इधर-उधर देखता हुआ आगे बढ़ने लगा । सघन अटवी में भयानक हिंस्र-पशुओं से बवता और आक्रमणकारी पशुओं को खदेड़ता हुआ, वह आगे बढ़ता ही रहा । उसे न गर्मी का भय रोक सका, न सर्दी का । वह सभी प्रकार के कष्टों को सहता हुआ मित्र की खोज निकालने की ही धुन लिए भटकने लगा। उसकी दशा बिगड़ गई । काँटों और कंकरों ने पाँवों में छेद कर दिये, चलना दुभर हो गया, कपड़े फट गये, वाल बढ़ गए, फिर भी वह चलता ही रहा । इस प्रकार भटकते हुए उसे एक वर्ष बीत गया ।
एक बार वह एक वन में भटक रहा था कि उसे हंस, सारस आदि पक्षियों का स्वर सुनाई दिया, कमल के पुष्पों की गंध आने लगी और उसके मन में भी प्रसन्नता उत्पन्न होने लगी और साथ ही मित्र के शीघ्र मिलने की आशा जोर पकड़ने लगी। वह उसी दिशा में आगे बढ़ा। थोड़ी दूर चलने पर उसे गान्धार राग में गाया जाता हुआ मधुर गीत और वीणा का स्वर सुनाई दिया। उसके हृदय की आशा-लता हरी हो गई । वह शीघ्रता से आगे बढ़ा । दूर से उसने देखा कि विचित्र वेश धारण करने वाली कुछ रमणियों के बीच एक पुरुष बैठा है। उसका हर्ष उमड़ने लगा । निकट आने पर उसने अपने प्रिय मित्र को पहिचान लिया। उसका मनोरथ पूर्णरूप से सफल हो गया । वह दौड़ता हुआ सनत्कुमार के पास पहुँचा और तत्काल उनके चरणों में गिर गया। अचानक महेन्द्रसिंह को आया जान कर सनत्कुमार भी प्रसन्न हुआ और मित्र को छाती से लगा लिया। दोनों के हर्षाश्र बहने लगे।
जब दोनों मित्रों का हर्षा वेग कम हुआ, आनन्दाश्रु थमे, तव सनत्कुमार ने महेन्द्रसिंह
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