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________________ चक्रवर्ती सनत्कुमार अपनी देह के प्रति भी उदासीन हो गया । उसे अपने शरीर में भी वैसी हो वीभत्सता लग रही थी । वह मासक्षमणादि लम्बी तपस्या कर के शरीर और कर्मों का शोषण करने लगा | आयु पूर्ण होने पर वह सनत्कुमार देवलोक में देवता हुआ । देवायु पूर्ण होने पर रत्नपुर नगर में " जिनधर्म" नाम का श्रेष्ठि-पुत्र हुआ। वह बचपन से ही धर्मानुरागी था और बारह प्रकार के श्रावक-धर्म का पालन करने लगा था । वह साधर्मियों की सेवा भी उत्साहपूर्वक करता था । २८६ नागदत्त सार्थवाह, पत्नी वियोग से दुःखी हो कर और आर्त्तध्यानयुक्त मृत्यु पा कर तिर्यंच-योनि में भ्रमण करने लगा । चिरकाल तक जन्म-मरण करते हुए सिंहपुर नगर में एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया । उसका नाम " अग्निशर्मा " था । वह त्रिदण्डी सन्यासी बन कर अज्ञान तप करने लगा । इधर-उधर भ्रमण करता हुआ वह रत्नपुर नगर में आया । वहाँ हरिवाहन नामक अन्यधर्मी राजा था। राजा ने अग्निशर्मा त्रिदंडी तापस को अपने यहाँ पारणा करने का निमन्त्रण दिया। अग्निशर्मा राजभवन में आया । उसने वहाँ अचानक श्रेष्ठपुत्र जिनधर्म को देखा। देखते ही सत्ता में रहा हुआ पूर्वजन्म का वैर जाग्रत हुआ । उसने राजा से कहा- (6 'राजन् ! यदि आप मुझे पारणा कराना चाहते हैं, तो इस सेठ की पीठ पर गरमागरम खीर का पात्र रख कर भोजन करावें । ऐसा करने पर ही में भोजन करूँगा, अन्यथा बिना पारणा किये ही लौट जाउँगा ।" Jain Education International राजा, अग्निशर्मा का पूरा भक्त बन गया था । उसने अग्निशर्मा की बात स्वीकार कर ली । राजाज्ञा के अनुसार जिनधर्म ने अपनी पीठ झुका दी। उसकी पीठ पर अति उष्ण ऐसा पात्र रख कर, तापस भोजन करने लगा। जिनधर्म को इससे वेदना हुई, किन्तु वह शांत-भाव से अपने अशुभ कर्म के विपाक का परिणाम मान कर सहन करता रहा । तापस का भोजन पूरा हुआ, तब तक वह खीर पात्र जिनधर्मं सेठ के रक्त और मांस से लिप्त हो गया था । जिनधर्म ने घर आ कर अपने सभी सम्बन्धियों को खमाया और गृह त्याग कर मुनि के पास संयम स्वीकार किया। उसने एक पर्वत के शिखर पर जा कर पूर्व दिशा की ओर अपनी पीठ को खुली रख कर कायोत्सर्ग किया। पीठ पर खुले हुए मांस को देख कर गिद्धादि पक्षी आकर्षित हुए और अपनी चोंच से मांस नोच-नोच कर खाने लगे । इस असह्य वेदना को शांतिपूर्वक सहन करते हुए और धर्म-ध्यान में लौन रहते हुए आयु पूर्ण कर के जिनधर्म मुनिजी, सौधर्मकल्प में इन्द्र के रूप में उत्पन्न हुए । वह अग्निशर्मा अज्ञान तप For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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