SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थङ्कर चरित्र मघवा चक्रवर्ती २५००० वर्ष कुमारवय में, २५००० मांडलिक नरेश, १०००० दिग्विजय में, ३९०००० वर्ष चक्रवर्ती पद में और ५००० वर्ष संयम साधना में, इस प्रकार ५००००० वर्ष का कुल आयु भोग कर मुक्त हुए । चक्रवर्ती सनत्कुमार कांचनपुरी नाम की एक अत्यंत समृद्ध और विशाल नगरी थी । 'विक्रम यश नाम का महाप्रतापी राजा वहाँ राज करता था । वह महाप्रतापी था । अनेक राजा उसके आधीन थे । उसके अंतःपुर में ५०० रानियाँ थी । उस नगरी में नागदत्त नाम का ऋद्धिसम्पन्न सार्थवाह था । 'विष्णुश्री' उसकी अत्यंत सुन्दर पत्नी थी । दम्पत्ति में परस्पर प्रगाढ़ प्रेम था । वे सारस पक्षी के समान निरन्तर रसिकतापूर्वक जीवन व्यतीत करते थे । संयोगवशात् विष्णुश्री पर राजा की दृष्टि पड़ी । उसे देखते ही राजा मोहित हो गया । उसकी विवेक-बुद्धि नष्ट हो गई । उसने विष्णुश्री का हरण कर के अपने अंतःपुर में मँगवा लिया और उसके साथ अत्यंत गृद्ध हो कर भोग भोगने लगा । पत्नी का हरण होने पर नागदत्त विक्षिप्त हो गया । वह प्रेतग्रस्त व्यक्ति के समान सुध-बुध भूल कर भटकने लगा । उधर विष्णुश्री में ही लुब्ध हो जाने के कारण राजा की अन्य रानियों में ईर्षा उत्पन्न हो गई। उन्होंने औषध या मन्त्र- प्रयोग से विष्णुश्री को अपने मार्ग से हटाने का प्रयत्न किया । विष्णुश्री का स्वास्थ्य बिगड़ा । वह रोग ग्रस्त हो गई और अन्त में उसकी जीवन-लीला समाप्त हो गई । उसके मरने से राजा को भी गम्भीर आघात लगा और वह भी विक्षिप्त हो गया । उसकी दशा भी नागदत्त जैसी हो गई । राजा उसकी मृत देह को छोड़ता ही नहीं था । मन्त्रियों ने भुलावा दे कर विष्णुश्री के शव को बन में डलवा दिया। राजा विक्षिप्त के समान इधर-उधर भटकने लगा । अन्न पानी लिये उसे तीन दिन हो गए । मन्त्री मण्डल चिन्तित हो उठा । राजा को विष्णुश्री का बन में पड़ा हुआ क्षत-विक्षत शव बताया गया । उस सुन्दर देह की ऐसी दुर्दशा देख कर राजा विचार मग्न हो गया। सुन्दरता में छुपी हुई वीभत्सता उसके आगे प्रत्यक्ष हो रही थी। राजा विरक्त हो गया और राज्यादि का त्याग कर, श्री सुव्रताचार्य के समीप जा कर प्रव्रजित हो गया । वह राजर्षि चारित्र ग्रहण कर के २८८ १८ का अभिप्राय मोक्ष प्राप्ति का लगता है । इस विषय का स्पष्टीकरण आगे सनत्कुमार चक्रवर्ती के प्रकरण में किया जायगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy