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भ० धर्मनाथजी-धर्मदेशना
के सुख-दुःख का उत्कर्ष समान होता है, अर्थात् सन्तोषी मुनिवर जितने अंशों में सुखी है. उतने ही अंशों में असन्तोषी चक्रवर्ती दुःखी है। इसलिए चक्रवर्ती सम्राट भी अपने राज्य का त्याग कर के तृष्णा का त्याग करते हैं और निःसंगता के द्वारा सन्तोष रूपी अमृत को प्राप्त करते हैं ।
जिस प्रकार कानों को बन्द किया जाता है, तो भीतर से शब्दाद्वैत अपने आप बढ़ता है, उसी प्रकार जब धन की इच्छा का त्याग किया जाता है, तब सम्पत्ति अपने आप आ कर उपस्थित होती है। जिस प्रकार आँखें बन्द कर लेने से सारा विश्व ढक जाता है ( दिखाई नहीं देता) उसी प्रकार एक सन्तोष को ही धारण कर लिया जाय, तो प्रत्येक वस्तु में विरक्ति आ जाती है । फिर इन्द्रिय-दमन और काय-क्लेश तप की क्या आवश्यकता रहती है ? मात्र सन्तोष धारण कर लिया जाय, तो ऐसे महापुरुष की ओर मोक्ष-लक्ष्मी अपने आप आकर्षित होती है । जो भव्यात्मा सन्तोष के द्वारा तुष्ट हैं और मुक्ति जैसा सुख भोगते हैं. वे जीवित रहते हए भी मक्त हैं।
राग-द्वेष से युक्त और विषयों से उत्पन्न हुआ सुख किस काम का ? मुक्ति तो सन्तोष से उत्पन्न सुख से ही मिल सकती है। उन शास्त्रों के वे सुभाषित किस काम के जो दूसरों को तृप्त करने का विधान करते हैं। जिनकी इन्द्रियाँ मलिन है, जो विषयों को मन में बसाये हुए हैं, उन्हें मन को स्वच्छ कर के सन्तोष के स्वाद से उत्पन्न सुख की ही खोज करनी चाहिए।
हे प्राणी ! यदि तेरा यह विश्वास हो कि "जो कार्य होते हैं, वे कारण के अनुसार ही होते हैं," इस प्रकार सन्तोष के आनन्द से ही मोक्ष के अपार आनन्द की प्राप्ति होती है। इस सिद्धान्त की भी मान्यता करनी चाहिए ।
जो उग्र तप, कर्म को निर्मल करने में समर्थ है, वही तप यदि सन्तोष से रहित हो, तो निष्फल जाता है । सन्तोषी आत्मा को न तो कृषि करने की आवश्यकता रहती है, न नोकरी, पशु-पालन और व्यापार करने की ही जरूरत है। क्योंकि सन्तोषामृत का पान करने से उसकी आत्मा निवृत्ति के महान सुख को प्राप्त कर लेती है । सन्तोषामृत का पान करने वाले मुनियों को तृण पर सोते हुए भी जो आनन्द आता है, वह रुई के बड़े-बड़े गद्दों पर सोने वाले असन्तोषी धनवाम् को नहीं होता । असन्तोषी धनवान्, सन्तोषी समर्थ पुरुषों के आगे तृण के समान लगते हैं। चक्रवर्ती और इन्द्रादि की ऋद्धि तो प्रयासजन्य और नश्वर है, परन्तु सन्तोष से प्राप्त हुआ सुख, अनायास और नित्य होता है। इसलिए बुद्धि
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