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________________ भ० धर्मनाथजी - धर्मदेशना भी मायाचार के कारण बढ़ा कर बड़ा कर देते । जो मन से भी कुटिल हैं और वचन तथा काया से भी कुटिल हैं, उस जीव की मुक्ति नहीं हो सकती । मुक्त वे ही होते हैं, जो मन, वचन और काया से सरल हो । २८३ इस प्रकार मायाचारी कुटिल मनुष्यों को प्राप्त होने वाली उग्र कर्मों की कुटिलता का विचार कर के जो बुद्धिमान् हैं, वे तो मुक्ति प्राप्त करने के लिए सरलता का ही आश्रय लेते हैं । लोभ - कषाय का स्वरूप लोभ, समस्त दोषों की खान है, गुणों को भक्षण करने वाला राक्षस है । यह व्यसन रूपी लता का मूल है और सभी प्रकार के अर्थ की प्राप्ति में बाधक होने वाला है । निर्धन व्यक्ति, सौ सिक्कों का लोभी है, तो सौ वाला हजार चाहता है । हजार वाला लाख, लखपति, कोट्याचिपति होना चाहता है, तो कोट्याधिपति, राज्याधिपति होने की आकांक्षा रखता है और राज्याधिपति चक्रवर्ती सम्राट बनने का लोभ करता है । चक्रवर्ती हो जाने पर भी लोभ नहीं रुकता। फिर वह देव और देव से बढ़ कर देवेन्द्र बनने की तृष्णा रखता है । इन्द्र हो जाने पर भी इच्छा की पूर्ति नहीं होती। लोभ की संतति उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है । जिस प्रकार समस्त पापों में हिंसा, समस्त कर्मों में मिथ्यात्व और सभी रोगों में राजयक्ष्मा (क्षय) बड़े हैं, उसी प्रकार सभी कषायों में लोभ-कषाय बड़ी है । इस पृथ्वी पर लोभ का एक छत्र साम्राज्य है । यहाँ तक कि जिस वृक्ष के नीचे धन होता है, उस धनको वृक्ष की जड़ आदि लिपट कर आच्छादित कर देती है ( ढक देती है) धन के लोभ से बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरीन्द्रिय प्राणी, अपने पूर्व भव में जमीन में गाड़े हुए धन पर मूच्छित हो कर बैठते हैं । साँप और छिपकली जैसे पंचेन्द्रिय जीव भी लोभ से, अपने पूर्वभव के अथवा दूसरे के रखे हुए धन वाली भूमि पर आ कर लीन हो जाते हैं । Jain Education International पिशाच, मुद्गल ( व्यन्तर विशेष) भूत, प्रेत और यक्षादि देव भी लोभ के वश हो कर अपने या दूसरों के निधान (पृथ्वी में डटे हुए धन ) पर स्थान जमा कर अधिकार करते हैं। आभूषण उद्यान और वाषिकादि जलाशयों में मूच्छित देव मी वहाँ से च्यव करा पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतीकाय में उत्पन्न होते हैं । जो मुनि महात्मा, क्रोधादि कषाय पर विजय पा कर " उपशान्त मोह" नाम के ग्यारहवें गुणस्थान पर आरूढ़ हो जाते For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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