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________________ २१० तीर्थंकर चरित्र धूल चाटने लगा ? वाह रे महाबली !" __ तपस्वी मुनिजी, उसके मर्मान्तक व्यंग को सहन नहीं कर सके । उनकी आत्मा में सुप्तरूप से रहा हुआ क्रोध भड़क उठा । उन्होंने उसी समय उस गाय के दोनों सींग पकड़ कर उसे उठा ली और घास के पुले के समान चारों ओर घुमा कर रख दी। इसके बाद वे मन में विचार करने लगे कि “यह विशाखनन्दी कितना दुष्ट है । मैं मुनि हो गया । अब इसके स्वार्थ में मेरी ओर से कोई बाधा नहीं रहीं, फिर भी यह मेरे प्रति द्वेष रखता है और शत्रु के समान व्यवहार करता है ।" इस प्रकार कषाय भाव में रमते हुए उन्होंने निदान किया कि--- "मेरे तप के प्रभाव से आगामी भव में में महान् पराक्रमी बनूं।" इस प्रकार निदान कर के और उसकी शुद्धि किये बिना ही काल कर के वे महाशुक्र नाम के सातवें स्वर्ग में महान् प्रभावशाली एवं उत्कृष्ट स्थिति वाले देव बने। दक्षिण-भरत में पोतनपुर नाम का एक नगर था । 'रिपुप्रतिशत्रु' नामक नरेश वहाँ के शासक थे । वे न्याय, नीति, बल, पराक्रम, रूप और ऐश्वर्य से सम्पन्न और शोभायमान थे। उनकी अग्रमहिषी का नाम भद्रा था। वह पतिभक्ता, शीलवती और सद्गुणों की पात्र थी। वह सुखमय शय्या में सो रही थी। उस समय ‘सुबल' मुनि का जीव अनुत्तर विमान से च्यव कर महारानी की कुक्षि में आया। महारानी ने हस्ति, वृषभ, चन्द्र और पूर्ण सरोवर ऐसे चार महास्वप्न देखे । गर्भकाल पूर्ण होने पर पुत्र का ज जन्म हआ। जन्मोत्सवपूर्वक पुत्र का नाम 'अचल' रखा । कुछ काल के बाद भद्रा महारानी ने एक सुन्दर कन्या को जन्म दिया। वह कन्या मृग के बच्चे के समान आँखों वाली थी, इसलिए उसका ‘मृगावती' नाम रखा गया। वह चन्द्रमुखी, यौवनावस्था में आई, तब सर्वांग सुन्दरी दिखाई देने लगी। उसका एक-एक अंग सुगठित और आकर्षक था। यह देख कर उसकी माता महारानी भद्रावती को उसके योग्य वर खोजने की चिन्ता हुई। उसने सोचा" महाराज का ध्यान अभी पुत्री के लिए वर खोजने की ओर नहीं गया है। राजकुमारी यदि पिताश्री के सामने चली जाय, तो उन्हें भी वर के लिए चिन्ता होगी।" इस प्रकार सोच कर उसने राजकुमारी को महाराज के पास भेजी । दूर से एक अपूर्व सुन्दरी को आते देख कर राजा मोहाभिभूत हो गया। उसने सोचा--" यह तो कोई स्वर्ग लोक की अप्सरा है। कामदेव के अमोघ शस्त्र रूप में यह अवतरी है। पृथ्वी और स्वर्ग का राज्य मिलना सुलभ है, किन्तु इन्द्रानी को भी पराजित करने वाली ऐसी अपूर्व सुन्दरी प्राप्त होना दुर्लभ है । मैं महान् भाग्यशाली हूँ जो मुझे ऐसा अलौकिक स्त्री-रत्न प्राप्त हुआ है।" Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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