________________
भः श्रेयांसनाथजी---त्रिपृष्ट वासुदेव चरित्र
२०९
पुष्पकरण्डक उद्यान सदा तेरे लिए ही रहेगा । छोड़ दे इस हठ को और शीघ्र ही हमारे साथ हो जा।"
राजा, अपने माता-पिता, पत्नियाँ और समस्त परिवार के आग्रह और स्नेह तथा करुणापूर्ण अनुरोध की उपेक्षा करते हुए मुनि विश्वभूतिजी ने कहा ;--
"अब म संसार के बन्धनों को तोड़ चुका हूँ । काम-भोग की ओर मेरी बिलकुल रुचि नहीं रही । जिस काम-भोग को मैं सुख का सागर मानता था और संसार के प्राणी भी यही मान रहे हैं, वास्तव में वे दुःख की खान रूप है । स्नेही-सम्बन्धी अपने मोह-पाश में बांध कर संसार रूपी कारागृह का बन्दी बनाये रखते हैं और मोही जीव अपनी मोहजाल का विस्तार करता हुआ उसी में उलझ जाता है । मैं अनायास ही इस मोह-जाल को नष्ट कर के स्वतन्त्र हो चुका हूँ। यह मेरे लिए आनन्द का मार्ग है । अब आप लोग मुझे संसार में नहीं ले जा सकते । मैं तो अब विशुद्ध संयम और उत्कृष्ट तप की आराधना करूँगा। यही मेरे लिए परम श्रेयकारी है।'
मुनि राज श्री विश्वभूतिजी का ऐसा दृढ़ निश्चय जान कर परिवार के लोग हताश हो गए और लौट कर चले गये । मुनिराज अपने तप-संयम में मग्न हो कर अन्यत्र विचरने लगे।
मुनिराज ने ज्ञानाभ्यास के साथ बेला-तेला आदि तपस्या करते हुए बहुत वर्ष व्यतीत किये । इसके बाद गुरु की आज्ञा ले कर उन्होंने 'एकल-विहार प्रतिमा' धारण की और विविध प्रकार के अभिग्रह धारण करते हुए वे मथुरा नगरी के निकट आये। उस समय मथरा नगरी के राजा की पुत्री के लग्न हो रहे थे । विशाखनन्दी बरात ले कर आया था और नगर के बाहर विशाल छावनी में बरात ठहरी थी । मुनिराजश्री विश्वभूतिजी, मासखमण के पारणे के लिए नगर की ओर चले । वे बरात की छावनी के निकट हो कर जा रहे थे कि बरात के लोगों ने मुनिश्री को पहिचान लिया और एक दूसरे से कहने लगे-- "ये विश्वभूति कुमार हैं।" यह सुन कर विशाखनन्दी भी उनके पास आया। उसके मन में पूर्व का द्वेष शेष था । उसी समय मुनिश्री के पास हो कर एक गाय निकली । उसके धक्के से मुनिराज गिर पड़े । उनके गिरने पर विशाखनन्दी हँसा और व्यंगपूर्वक बोला
.. “वृक्ष पर मुक्का मार कर फल गिराने और उसी प्रकार क्षणभर में योद्धाओं के मस्तक गिरा कर ढेर करने की अभिमानपूर्ण बातें करने वाले महाबली ! कहां गया तेरा वह बल, जो गाय की मामूली-सी टक्कर भी सहन नहीं कर सका और पृथ्वी पर गिर कर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org