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________________ तीर्थकर चरित्र .२०६ प्रायश्चित्तं वैयावृत्यं, स्वाध्यायो विनयोऽपि च । व्युत्सर्गोऽथ शुभं ध्यानं, षोत्याभ्यंतरं तपः ॥ ५॥ दीप्यमाने तपोवह्नी, बाह्ये वाभ्यंतरेपि च । यमी जरति कर्माणि, दुर्जराण्यपि तत्क्षणात् ।। ६ ॥ __साधारणतया जहाँ संवर है वहाँ सकाम-निर्जरा होती रहती है, किंतु तप द्वारा की हुई निर्जरा विशेष रूप से होती है । उससे आत्मा की शुद्धि शीघ्रतापूर्वक होती है। त्रिपृष्ट वासुदेव चरित्र महाविदेह क्षेत्र में 'पुंडरिकिनी' नगरी थी। सुबल नाम का राजा वहाँ राज करता था। उसने वैराग्य प्राप्त कर 'मुनिवृषभ' नाम के आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की और संयम तथा तप का अप्रमत्तपने उत्कृष्ट रूप से पालन करते हुए काल कर के अनुत्तर विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए। भरत-क्षेत्र के राजगृह नगर में विश्वनंदी' नाम का राजा था। उसकी प्रियंगु' नाम की पत्नी से 'विशाखनन्दी' नाम का पुत्र हुआ। विश्वनन्दी राजा के 'विशाखभूति' नाम का छोटा भाई था। वह 'युवराज' पद का धारक था । वह बड़ा बुद्धिमान्, बलवान् नीतिवान् और न्यायी था, साथ ही विनीत भी। विशाखभूति की 'धारिनी' नाम की रानी की उदर से, मरीचि का जीव (जो प्रथम चक्र महाराजा भरतेश्वर का पुत्र था और भ० आदिनाथ के पास से निकल कर पृथक् पंथ चला रहा था ) पुत्रपने उत्पन्न हुआ। उसका नाम 'विश्वभूति' रखा गया। वह सभी कलाओं में प्रवीण हुआ । यौवन-वय आने पर अनेक सुन्दर कुमारियों के साथ उसका लग्न किया गया। वहाँ 'पुष्प करंडक' नाम का उद्यान बड़ा सुन्दर और रमणीय था। उस नगरी में सर्वोत्तम उद्यान यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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