________________
Jain Education International
भ० श्रेयांसना भजी - धर्मदेशना
आभ्यन्तर तप के छह भेद इस प्रकार हैं- १ प्रायश्चित्त २ विनय ३ वैयावृत्य ४ स्वाध्याय ५ शुभध्यान और ६ व्यत्सर्ग |
बाह्य और आभ्यन्तर तप रूपी अग्नि को प्रज्वलित कर के व्रतधारी पुरुष, अपने दुर्जर कर्मों को भी जला कर भस्म कर देता है ।
3
जिस प्रकार किसी सरोवर के पानी आने के सभी द्वार बन्द कर देने से उसमें बाहर से पानी नहीं आ सकता, उसी प्रकार संवर से युक्त आत्मा के आस्रव द्वार बन्द होने पर नये कर्म का योग नहीं हो सकता । जिस प्रकार सूर्य के प्रचण्ड ताप से सरोवर में रहा हुआ पानी सूख जाता है, उसी प्रकार आत्मा के पूर्व बँधे हुए कर्म, तपश्चर्या के ताप से तत्काल क्षय हो जाते हैं । बाह्य तप से आभ्यन्तर तप श्रेष्ठ होता है । इससे निर्जरा विशेष होती है । मुनिजन कहते हैं कि आभ्यन्तर तप में भी ध्यान का राज्य तो एक छत्र रहा हुआ है | ध्यानस्थ रहे हुए योगियों के चिरकाल से उपार्जन किये हुए प्रबल कर्म, तत्काल निर्जरीभूत हो जाते हैं । जिस प्रकार शरीर में बढ़ा हुआ दोष, लंघन करने से नष्ट होता है, उसी प्रकार तप करने से पूर्व के संचित किये हुए कर्म क्षय हो जाते हैं । जिस प्रकार प्रचण्ड पवन के वेग से बादलों का समूह छिन्न-भिन्न हो जाता है, उसी प्रकार तपश्चर्या से कर्म-समूह विनष्ट हो जाता है । जब संवर और निर्जरा, प्रतिक्षण शक्ति के साथ उत्कर्ष को प्राप्त होते हैं, तब वे अवश्य ही मोक्ष की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं । बाह्य और आभ्यन्तर ऐसे दोनों प्रकार की तपस्या से कर्मों को जलाने वाला प्रज्ञावंत पुरुष, सभी कर्मों से मुक्त हो कर मोक्ष के परम उत्कृष्ट एवं शाश्वत सुख को प्राप्त करता है ।
66
'संसारबीजभूतानां कर्मणां जरणादिह ।
निर्जरा सा स्मृता द्वेधा, सकामा कामवजिता ॥ १ ॥ ज्ञेया सकामा यमिनामकामा स्वन्यदेहिनां । कर्मणां फलवत्पाको, यदुपायात्स्वतोऽपि च ॥ २ ॥ सदोषमपि दीप्तेन, सुवर्ण वह्निना यथा । तपोग्निना तप्यमानस्तथा जीवो विशुध्यति ॥ ३ ॥ अनशन मौनोदर्य वृतेः संक्षेपणं तथा । रसत्यागस्तनुक्लेशो, लीनतेति बहिस्तपः ॥ ४ ॥
२०५
1
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org