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तीर्थकर चरित्र
यिकादि पाँच चारित्र ।
संवर का दूसरा नाम निवृत्ति' भी है। निवृत्ति के द्वारा आत्मा, अनन्त असीम पोद्गलिक रुचि को छोड़ कर--निवृत्त हो कर अपने-आप में स्थिर होता है । स्थिरता की वृद्धि के साथ गुणस्थान की वृद्धि होती है और जब पूर्ण स्थिरता हो जाती है, तब आत्मा मुक्त हो कर शाश्वत पद को प्राप्त कर लेती है। धर्म का मूल आधार ही संवर है । संवर रूपी फौलादी रक्षा-कवच को धारण करने वाला आत्म-सम्राट, पूर्ण रूप से सुरक्षित रहता है। उस पर मोहरूपी महाशत्रु का आक्रमण सफल नहीं हो सकता । संवरवान् आत्मा, मोह महाशत्रु पर पूर्ण विजय प्राप्त कर के धर्म-चक्रवर्तीपद प्राप्त कर ईश्वर-जिनेश्वर बन जाता है । वह शाश्वत सुखों को प्राप्त कर लेता है।
प्रभु की प्रथम देशना में अनेक भव्यात्माओं ने सर्वविरतिरूप श्रमण-धर्म स्वीकार किया और अनेक देश-विरत श्रावक बने । प्रभु के 'आनन्द' आदि ८१ गणधर हुए । प्रभु तीन मास कम पच्चीस हजार पूर्व तक पृथ्वीतल पर विचर कर और भव्य जीवों को प्रतिबोध दे कर मोक्षमार्ग में लगाते रहे । प्रभु के धर्मोपदेश से प्रेरित हो कर एक लाख पुरुषों ने श्रमण-धर्म स्वीकार किया। १००००६ + साध्वियाँ हुई। १४०० चौदह पूर्वधारी, ७२०० अवधिज्ञानी, ७५०० मनःपर्यवज्ञानी, ७००० केवलज्ञानी, १२००० वैक्रिय-लब्धि वाले, ५८०० वादलब्धि वाले, २८९.०० श्रावक और ४५८००० श्राविकाएँ हुई ।
मोक्ष काल निकट आने पर प्रभु एक हजार मुनियों के साथ सम्मेदशिखर पर्वत पर पधारे और एक मास का संथारा किया । वैशाख-कृष्णा द्वितीया तिथि को पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में प्रभु परम सिद्धि को प्राप्त हुए । प्रभु का कुल आयुष्य एक लाख पूर्व का था ।
+ त्रि. श. पू. च. में १०६००० लिखी है।
दसवें तीर्थंकर
भगवान् ॥ शीतलनाथजी का चरित्र सम्पूर्ण ।।
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