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तीर्थंकर चरित्र
चित्त की उत्तमता, पवित्रता एवं शुभ ध्यान में स्थिरता के द्वारा आर्त्त और रौद्र ध्यान पर विजय पाना चाहिए ।
जिस प्रकार अनेक द्वार वाले भवन के सभी द्वार खुले रहें, तो उसमें धूल अवश्य ही घुस जाती है और इस प्रकार घुसी हुई धूल, तेल आदि की विकास के संयोग से चिपक कर तन्मय हो जाती है । यदि घर सभी द्वार बन्द रहें, तो धूल घुसने का अवसर ही नहीं आवे । उसी प्रकार आत्मा में कर्म-पुद्गल के प्रवेश करने के सभी द्वारों को बंद कर दिया जाय, तो कर्म का आना ही रुक जाय ।
जिस प्रकार किसी सरोवर में पानी आने के सभी नाले खुले रहें, तो उसमें चारों ओर से पानी आ कर इकट्ठा होता जाता है और नाले बन्द कर देने पर पानी आना बन्द हो जाता है । फिर उसमें बाहर का पानी नहीं आ सकता । उसी प्रकार अविरति रूपी आस्रव द्वार बन्द कर देने से आत्मा में कर्मों की आवक रुक जाती है ।
जिस प्रकार किसी जहाज के मध्य में छिद्र हो गये हों, तो उन छिद्रों में से जहाज में पानी भरता रहता है और भरते भरते जहाज के डूब जाने की सम्भावना रहती है और छिद्र बन्द कर देने से पानी का आगमन रुक जाता है । फिर जहाज को कोई खतरा नहीं रहता । इसी प्रकार योगादि आस्रव द्वारों को सभी प्रकार से बन्द कर दिया जाय, तो संवर से सुशोभित बने हुए चारित्रात्मा में कर्म द्रव्य का प्रवेश नहीं हो सकता ।
आस्रव के निरोध के उपाय को ही 'संवर' कहते हैं और संवर के क्षमा आदि अनेक भेद हैं । गुणस्थानों में चढ़ते चढ़ते जिन आस्रव द्वारों का निरोध होता है, उन नामों वाले संवर की प्राप्ति होती है। अति सम्यग्दृष्टि मे मिथ्यात्व का उदय रुक जाने से सम्यक्त्व संवर की प्राप्ति होती है । देशविरति आदि गुणस्थानों में अविरति का ( विरति ) संवर होता है । अप्रमत्तादि गुणस्थानों में प्रमाद का संवरण होता है । उपशांत मोह और क्षीण-मोह गुणस्थानों में कषाय का संवरण होता है और अयोगी-केवली नाम के चौदहवें गुणस्थान में पूर्णरूप से योग-संवर होता है ।
जिस प्रकार जहाज का खिवैया, छिद्र रहित जहाज के योग से, समुद्र को पार कर जाता है, उसी प्रकार पवित्र भावना और सुबुद्धि का स्वामी, उपरोक्त क्रम से पूर्ण संवरवान् हो कर संसार समुद्र के पार पहुँच कर परम सुखी बन जाता है ।
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" सर्वेषामाश्रवाणां तु, निरोधः संवरः स्मृतः । स पुनभिद्यते द्वेधा, द्रव्य-भावविभेदतः ॥ १॥
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