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भ. शीतलनाथजी--धर्मदेशना
कृष्ण-पक्ष की चतुर्दशी को पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में घातीकर्मों का क्षय कर के केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त किया। इन्द्रादि देवों ने केवल-महोत्सव किया ।
धर्मदेशना संवर भावना
केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद भगवान् ने प्रथम धर्मोपदेश में फरमाया-- ___ " इस संसार में सभी पौद्गलिक पदार्थ, विविध प्रकार के दुःख के कारण हैं और क्षणिक हैं । पौद्गलिक-रुचि ही आस्रव की मूल और दुःख की सर्जक है और आस्रव का निरोध करना ‘संवर' है । संवर अनन्त सुखों के भण्डार रूप मोक्ष को प्राप्त करने का साधन है।
संवर दो प्रकार का है--१ द्रव्य संवर और २ भाव संवर । जिससे कर्म-पुद्गलों का ग्रहण रुके, वह द्रव्य-संवर है और जिससे संसार की हेतु ऐसी परिणति और क्रिया का त्याग हो, वह भाव-संवर है । जिन-जिन उपायों से जिस-जिस आस्रव का निरोध हो, उस आस्रव की रोक के लिए बुद्धिमानों को वैसे ही उपाय करना चाहिये । संवर धर्म के वे उपाय इस प्रकार हैं--
क्षमा--सहनशीलता से क्रोध के आस्रव को रोकना चाहिए । कोमलता (नम्रता) से मान का, सरलता से माया का और निस्पृहता से लोभ का । इस प्रकार चार प्रकार की संवरमय साधना से, संसार के सब से बड़े आस्रव रुक जाते हैं।
बुद्धिशाली मनुष्य का कर्तव्य है कि असंयम से उन्मत्त बने हुए, विष के समान विषयों का, अखण्ड संयम के द्वारा निरोध करे । मन वचन और काया के योग जन्म आस्रव को, तीन गुप्तियों के अंकुश से वश में करना चाहिए।
मद्य एवं विषय-कषायादि प्रमाद आस्रव का अप्रमत्त भाव से संवरण करना और सभी प्रकार के सावद्य-योग के त्याग के द्वारा अविरति को रोक कर विरति रूपी संवर की आराधना करनी चाहिए।
संवर की साधना करने वाले को सर्व-प्रथम सम्यग्दर्शन के द्वारा मिथ्यात्व के महान् आस्रव को बन्द कर देना चाहिए।
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