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तीर्थकर चरित्र
तृतीया के दिन मूल-नक्षत्र में सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हो कर तीर्थकर नाम-कर्म को पूर्ण रूप से सफल किया।
धर्मदेशना
आसव भावना
भगवान् का प्रथम उपदेश इस प्रकार हुआ--
यह संसार अनन्त दुःखों के समूह का भंडार है। जिस प्रकार विष की उत्पत्ति का स्थान विषधर (सर्प) है, उसी प्रकार दुःखमय संसार की उत्पत्ति का कारण 'आस्रव'
आस्रव का अर्थ है--'कर्म पुद्गलों का आत्मा में प्रवेश करने का कारण । आत्मा में कर्म के प्रवेश करने का मार्ग ।'
जीवों के मन वचन और काया से जो क्रिया होती है, वह 'योग' कहलाता है। ये योग ही आत्मा में शुभाशुभ कर्म को आस्रवते (लाते) हैं। इसी से यह 'आस्रव' कहलाता है। मैत्री आदि शुभ भावना से वासित जीव, शुभ कर्म का बन्ध करता है और कषाय तथा विषयों से आक्रान्त हुए चित्त से आत्मा, अशुभ कर्म बांधता है। श्रुतज्ञान के आश्रय से बोला हआ सत्य वचन, शुभ कर्मों का कारण है । इसके विपरीत वचन अशुभ कर्मों का सर्जक है। बुरे कामों से रोक कर अच्छे कार्यों में लगाये हुए शरीर से शुभ कर्म की उत्पत्ति होती हैं और आरम्भ तथा हिंसादि सावध कार्यों में लगी हुई शारीरिक प्रवृत्ति से बुरे---दुःखदायक कर्मों का आस्रव होता है।
विषय, कषाय, योग, प्रमाद, अविरति, मिथ्यात्व तथा आर्त और रोद्र ध्यान--ये अशुभ आस्रव के कारण हैं।
आस्रव के द्वारा आत्मा में प्रवेश करने वाले कर्मों के ज्ञानावरणीयादि, आठ भेद हैं। ज्ञान और दर्शन के विषय में, ज्ञानी व दर्शनी के प्रति और ज्ञान दर्शन उत्पन्न करने के कारणों में विघ्न (बाधा) खड़ी करना, निन्वहता करना, पिशुनता एवं आशातना करना, उनकी घात करना और मात्सर्यता करना--ये ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म बाँधने के हेतुभूत आस्रव हैं ।
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