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था, किन्तु आज तक आपके दर्शन भी नहीं कर सका। मैं प्रमाद के वश हो कर आपकी स्मृति ही भूल गया । महात्मन् ! आप तो कृपानिधान हैं, क्षमा के सागर हैं । मेरे अपराध क्षमा करें – प्रभु !
सार्थपति ! चिंता मत करो ". - आचार्य शांत वचनों से सेठ को आश्वस्त करने लगे--" आपने जंगली क्रूर पशुओं से और चोरों से हमारी रक्षा की है । आपके संघ के लोग ही हमें आहारादि देते हैं । मार्ग में हमें कुछ भी कष्ट नहीं हुआ । इसलिए खेद करने की आवश्यकता नहीं है ।"
" महर्षि ! गुणीजन तो गुण हो देखते हैं । मैं भूल और दोष का पात्र हूँ । मैं अपने ही प्रमाद से लज्जित हो रहा हूँ । आप मुझ पर प्रसन्न होवें और मेरे यहाँ से आहार ग्रहण करें " ' -- धन्य सार्थवाह ने कहा ।
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तीर्थंकर चरित्र
बोधिलाभ
आचार्यश्री ने साधुओं को आहार के लिए भेजा । जिस समय साधु गोचरी के लिए गये, उस समय सेठ के रसोड़े में साधुओं को देने योग्य निर्दोष सामग्री कुछ भी नहीं थी । सेठ ने देखा -- सिवाय घृत के और कुछ भी नहीं है। उसने मुनिवरों को घृत ग्रहण करने का निवेदन किया । साधुओं ने पात्र आगे रख दिया । सार्थपति श्री धन्य श्रेष्ठी ने भावों की उत्तमता से -- बड़े ही प्रमोद भाव से भक्तिपूर्वक घृत दान दिया । घृत दान के समय भावों की विशुद्धि से सार्थपति को मोक्ष के बीज रूप ' बोधि-बीज ' - - सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई । सेठ दान देने के पश्चात् मुनिवरों को पहुँचाने आश्रम तक गया और आचार्यश्री को वन्दना कर के बैठ गया । आचार्यश्री ने सार्थपति को धर्मोपदेश दिया, जिसे सुन कर वह बहुत प्रसन्न हुआ । उसने कहा--" भगवन् ! आपका उपदेश मेरे हृदय में उतर गया है । मैने आज पहली बार ही ऐसा उपदेश सुना । में अब तक अन्धकार में ही भटक रहा था ।' आचार्यश्री को वन्दना कर के सेठ अपने स्थान पर आये । वर्षाकाल पूरा हुआ । सार्थपति ने प्रस्थान की तय्यारी की और उद्घोषणा करवा कर सभी को तय्यार होने की सूचना दी । पूरा संघ चल पड़ा । जब संघ, भवानक और विशाल जंगल को पार कर गया और छोटे-मोटे गांव आने लगे, तब आचार्यश्री ने संघपति धन्य सेठ को सूचित कर के पृथक् विहार कर दिया और सार्थ वसन्तपुर की दिशा में आगे बढ़ा । वसन्तपुर पहुँचने के बाद
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