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________________ तीर्थंकर चरित्र " महाराज ! मेरा मन तो इस कटोरे में था । मैं क्या जानूं नगर की शोभा, उत्सवों और नृत्यनाटकों को। मैने कुछ भी नहीं देखा-स्वामिन !" "अरे, तू जलसों के मध्य हो कर निकला, फिर भी उन्हें नहीं देख सका? यह कैसे हो सकता है ?" "नरेन्द्र ! मैं जलसा देख कर क्या मौत बुलाता? मेरे सिर पर तो मौत मँडरा रही थी। फिर मैं नृत्य देखने का शौक कैसे करता ?" __ "भाई ! जिस प्रकार तू मृत्युभय से, जलसों और नृत्य-नाटकों के बीच जाते हुए भी निलिप्त एवं अप्रमत्त रहा, उसी प्रकार अप्रमत्त मुनि भी संसार में रहते हुए अप्रमत्त रहते हैं। उनके सामने भी मृत्युभय और पाप के कटु फल-विपाक का डर सदैव रहता है। वे इसीलिए संसार से उदासीन एवं अप्रमत्त रहते हैं और संसार से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।" यह है तेलपात्रधर का दृष्टांत । इसका सम्बन्ध अप्रमत्त संयती-महान् त्यागी निग्रंथों से हैं, जो अप्रमत्त या अप्रमत्तवत् होते हैं । आचार्यश्री हरीभद्रसूरिजी ने गा. ९३१ के उत्तरार्द्ध में--"सेवंति अप्पमायं साहू" से और टीकाकार ने--" सेवन्तेऽप्रमादमुक्तलक्षणं साधवो मोक्षार्थ मक्तिनिमित्तं उद्युक्ता उद्यमवंता"--इस उदाहरण का सम्बन्ध अप्रमत्त-संयत से जोड़ा है। श्रीहरीभद्रसूरिजी ने गा. ९२२ में यह भी बताया है कि 'तेलपात्रधर का दृष्टांत तन्त्रान्तरदर्शनान्तर में भी प्रसिद्ध है। किंतु भरतेश्वर के चरित्र के साथ इस कथा का सम्बन्ध वास्तविक नही लगता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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