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________________ भ० ऋषभदेवजी--भगवान् का मोक्ष गमन रहे ।' वहाँ उनके सामने, वही देह--अखण्ड एवं परिपूर्ण देह उपस्थित होते हुए भी वे अपना संतोष नहीं कर के तीर्थंकर भगवान् के विरह की वेदना से अपार दुःख का वेदन करने लगे। प्रथम स्वर्ग का अधिपति शक्रेन्द्र, अपने देव विमान में आनन्दानुभव कर रहे थे कि हटात् उनका आसन चलायमान हुआ । वे स्तब्ध रह गए । अवधिज्ञान का उपयोग लगाया। उन्हें जिनेश्वर का विरह मालूम हुआ । वे भी शोक-मग्न हो गए और परिवार सहित अष्टापद पर्वत पर आये। उसी प्रकार सभी इन्द्र और देवी-देव आये । सभी की आँखों में आँसू थे। सभी रुदन कर रहे थे। जिनेश्वर के उस शव को देवों ने स्नान कराया, वस्त्र पहिनाये और आभूषण भी पहिनाये। इसके बाद श्रेष्ठ गोशीर्ष को लकड़ी से तीन चिताएँ रची गई--१ भगवान् श्री ऋषभदेवजी के लिए २ गणधरों के लिए और ३ शेष सभी साधुओं के लिए। फिर तीन शिविकाएँ बनाई । एक शिविका में भगवान् के शरीर को स्थापन किया, दूसरी में गणधरों के शरीर को और तीसरा में शेष साधुओं के शरीर को रखा । उन तीनों शिविकाओं को विताओं में स्थापन किया और अग्निकाय देव ने अग्नि उत्पन्न की। वायुकुमार देव ने वायु चला कर अग्नि को सतेज कर प्रज्वलित किया। चिता में अगर, तुरक, घृत आदि डाला गया। चिताओं में शरीर जल कर भस्म हो गए। फिर मेघकुमार देवों ने क्षीरोदक की वर्षा की । उसके बाद जिनेश्वर की चिता में से शक्रेन्द्र ने ऊपर की दाहिनी ओर की दाढ़ा ग्रहण की, ईशानेन्द्र ने बाँयी ओर की, असुरेन्द्र मर ने नीचे की ओर की दाहिनी और बलिन्द्र ने बाँयी ओर की डाढ़ ग्रहण की। इसके बाद अन्य देवों ने शेष अस्थि-भाग ग्रहण किया । उस दाह स्थान पर देवों ने चैत्य-स्तूप बनाये । निर्वाण महोत्सव किया। नन्दीश्वर द्वीप पर जा कर अष्टान्हिका महोत्सव किया। इसके बाद उन दाढ़ों आदि को ले कर स्वस्थान आये और उन दाढ़ों को डिब्बों में रख कर चैत्य-स्तंभ में रखी और उनकी अर्चना की। ___ भगवान् ऋषभदेवजी के ८४ गणधर, ८४००० साधु, ब्राह्मी-सुन्दरी आदि ३००००० साध्वियें, श्रेयांस आदि श्रावक ३०५००० और सुभद्रादि ५५४००० श्राविकाएँ थी। साधुओं में ४७५० जिन नहीं, किंतु जिन समान ऐसे चौदह पूर्वधर मुनि थे । ९००० अवधिज्ञानी, २००.० केवलज्ञानी, २०६०० वैक्रिय लब्धि वाले, १२६५०+ विपुलमति मन: + इसमें मतान्तर है, १२७५० भी माने जाते है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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