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उपशमनादि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४७
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मोहनीय का शेष भाग अनुभव कर क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न करके क्षपक या उपशम श्रेणि में से किसी एक श्रेणि पर आरोहण करता है । यदि परभव की वैमानिक देव की ही आयु बाँधी हो और बाद में क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न किया हो तो ही उपशम श्रेणि पर चढ़ सकता है ।
चार गति में से किसी भी गति का आयु नहीं बाँधने वाला reator क्षायिक सम्यग्दृष्टि अन्तर्मुहूर्त में ही क्षपक श्रेणि पर आरोहण करता है - क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर अन्तर्मुहूर्त काल में ही चारित्रमोहनीय की क्षपणा प्रारम्भ करता है और वैमानिक के सिवाय अन्य कोई आयु बांधी हो तो एक भी श्रेणि पर नहीं चढ़ सकता है । क्षायिक सम्यक्त्व कितनेवें भव में मोक्ष जाता है ? अब इस प्रश्न का उत्तर देते हैं ।
क्षायिक सम्यक्त्व का मुक्तिगमन
तइय चउत्थे तम्मि व भवंमि सिज्झति दंसणे खीणे ।
ते
जं देवनरयऽसंखाउ चरमदेहेसु
होंति ॥ ४७ ॥ शब्दार्थ - तइय चउत्थे- तीसरे, चौथे, तम्मि वा - अथवा उसी, भवे- - भव में, सिज्झति - सिद्ध होते हैं, दंसण खीणे - दर्शनसप्तक का क्षय करने के बाद, जं- क्योंकि, देवनरयऽसंखाउचरम देहेसु – देव, नारक, असंख्यात वर्ष की आयु वालों या चरम देह में, ते वे, होंति - होते हैं ।
गाथार्थ - दर्शन सप्तक का क्षय करने के बाद तीसरे, चौथे या उसी भव में मोक्ष में जाते हैं। क्योंकि देव, नारक, असंख्यात वर्ष की आयु वालों या चरम देह में वे होते हैं ।
विशेषार्थ - दर्शन सप्तक का क्षय करने के बाद तीसरे, चौथे या उसी भव में जीव मोक्ष जाते हैं। क्योंकि क्षायिक सम्यग्दृष्टि देव, नारक या असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच - मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं अथवा चरम शरीरी होते हैं । इसी कारण तीसरे, चौथे या उसी
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