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उपशमनादि करणत्रय प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३५
४६ से उत्तरोत्तर समय में असंख्यातगुण अधिक दलिकों को ग्रहण करता हुआ अन्तर्मुहूर्त काल में उतनी स्थिति का नाश करता है । पुनः उपयुक्त क्रम से पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण दूसरा खण्ड लेता है और अन्तर्मुहूर्त में उसका नाश करता है । इस रीति से अपूर्वकरण के काल में हजारों स्थितिघात करता है। अपूर्वकरण में प्रथम समय जो स्थितिसत्ता थी, उससे चरम समय में संख्यातगुणहीन होती है, अर्थात् संख्यातवें भाग की शेष रहती है।
रसघात-अर्थात् अशुभ प्रकृतियों का सत्ता में जो रस है, उसका अनन्तवाँ भाग रख शेष अनन्त भागों को समय-समय नाश करता अन्तमुहर्त काल में पूरी तरह से नाश करता है । तत्पश्चात् शेष रखे अनन्तवे भाग का अनन्तवाँ भाग रखकर शेष अनन्त भागों को समयसमय में नाश करता हुआ अन्तर्मुहूर्त में नाश करता है और शेष रखे अनन्तवे भाग का अनन्तवाँ भाग रखकर अनन्त भागों को समय-समय नाश करता हुआ अन्तर्मुहूर्त काल में नाश करता है । इस प्रकार से एक स्थितिघात जितने काल में हजारों रसघात करता है।
गुणश्रेणि-उदय समय से लेकर अन्तमुहर्तप्रमाण स्थिति मे ऊपर के स्थानों में से दलिक ग्रहण करके उनको उदयावलिका से ऊपर के समय से प्रारम्भ कर अन्तमुहूर्त प्रमाण समयों में पूर्व-पूर्व से उत्तरोत्तर समय में असंख्यात-असंख्यात गुणाकार रूप से स्थापित करता है। इस प्रकार प्रतिसमय अन्तमुहर्त से ऊपर के स्थानों में से असंख्यात-असंख्यात गुण अधिक दलिकों को उतार कर उदयावलिका के ऊपर के समय से लेकर पूर्वोक्त क्रम से स्थापित करता है। इस गुणश्रेणि-दल रचना का अन्तर्मुहूर्त अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण से बड़ा है। यानि अपूर्वकरण के प्रथम समय में जो दलिक उतारता है, उनको उदयावलिका छोड़ उसके ऊपर के समय से लेकर अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण से अधिक समयों में स्थापित करता है । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के समयों को भोगकर जैसे-जैसे समाप्त करता जाता है, वैसे-वैसे दलरचना शेष-शेष समयों में होती
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