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________________ उपशमनादि करण त्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३१ ४१ नावरण कषाय का सर्वथा क्षय या सर्वथा उपशम नहीं करना पड़ता है, परन्तु क्षयोपशम करना होता है और वह तो अपूर्वकरण में ही होता है । जिससे यहाँ तीसरे करण की आवश्यकता नहीं रहती है । 1 तथा उदयावलिए उप्पि गुणसेढिं कुणइ चरित्तरेण । अन्तो असंखगुणणाइ तत्तियं वड्ढई कालं ॥३१॥ शब्दार्थ - उदयावलिए— उदयावलिका से, उप्पि - ऊपर, गुणसेढिंगुणश्रेणि, कुणइ — करता है, चरित - चारित्र से, अन्तो-- अन्तर्मुहूर्त, अतंखगुणणाइ- असंख्यात गुणाकार रूप से, तत्तियं मान, कालं काल । उतने वड्ढई -- प्रवर्ध - , गाथार्थ - उदयावलिका से ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त असंख्यात गुणाकार रूप से गुणश्रेणि करता है । उतने काल प्रवर्ध - मान परिणाम वाला होता है । विशेषार्थ - देशविरति और सर्वविरति प्राप्त करने के लिये होने वाले अपूर्वकरण में गुणश्रेणि नहीं होती, किन्तु करण पूर्ण होने के बाद देशविरति अथवा सर्वविरति चारित्र के साथ ही यानि कि जिस समय देशविरति और सर्वविरति चारित्र प्राप्त होता है, उसी समय से उदयावलिका से ऊपर के समय से लेकर पूर्व - पूर्व स्थान से उत्तरोत्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थान में असंख्यात असंख्यात गुणाकार रूप से अन्तमुहूर्त कालपर्यन्त गुणश्रेणि- दलरचना करता है । यद्यपि देशविरत और सर्वविरत गुणस्थान में वह गुणस्थान जब तक रहे तब तक गुणश्र णि होती है, लेकिन यहाँ अन्तर्मुहूर्त कहने का कारण यह है कि देशविरति और सर्वविरति प्राप्त होने के बाद अन्त - मुहूर्त काल पर्यन्त आत्मा के अवश्य प्रवर्धमान परिणाम होते हैं, तत्पश्चात् नियम नहीं है । उसके बाद तो कोई प्रवर्धमान परिणाम वाली, कोई अवस्थित - स्थिर पूर्व के समान परिणाम वाली और कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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