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________________ ४० पंचसंग्रह : ६ युक्त होता है, किन्तु उनके किसी पापकार्य को सुनता नहीं या अच्छा नहीं मानता है, तब संवासानुमति दोष लगता है ।1 इनमें अन्तिम दोष का जो सेवन करता है वह उत्कृष्ट देशविरत है और अन्य श्रावकों से गुणों में श्रेष्ठ है । जो संवासानुमति से-पुत्रादि के ममत्व भाव से भी विरत है-वह सर्व विरत कहलाता है। इन दो-देशविरति और सर्वविरति में से किसी भी विरति को आदि के दो करण-यथाप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण के द्वारा प्राप्त करता है । यदि अविरति होने पर उक्त दो करण करे तो देश विरति अथवा सर्वविरति इन दोनों में से किसी एक को प्राप्त करता है और देशविरति होते उक्त दो करण करे तो सर्वविरति को ही अंगीकार करता है। देशविरति, सर्वविरति प्राप्त करते हुए तीसरा अनिवृत्तिकरण इसलिये नहीं होता है कि करणकाल से पहले भी अन्तमुहूर्त काल पर्यन्त प्रति समय अनन्तगुण बढ़ती विशुद्धि से वर्तमान अशुभकर्मों के रस को द्विस्थानक और शुभ प्रकृतियों के रस को चतु:स्थानक करता है इत्यादि जैसा पूर्व में यथाप्रवृत्त और अपूर्वकरण के स्वरूप निर्देश के प्रसंग में कहा गया वैसा यहाँ भी सब होता है, मात्र देशविरति और सर्वविरति प्राप्त करते हुए अपूर्वकरण में गुणश्रोणि नहीं होतो है और अपूर्वकरण के पूर्ण होते ही अनन्तर समय में अवश्य ही देशविरति अथवा सर्वविरति प्राप्त करता है । इसलिये यहाँ तीसरा अनिवृत्तिकरण नहीं होता है। इसका कारण यह है कि सर्वथा क्षय या उपशम करना हो तो वहाँ ही अनिवृत्तिकरण होता है। देशविरति या सर्वविरति प्राप्त करते अनुक्रम से अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्या १ पहली अनुमति में स्वयं अथवा अन्य द्वारा कृत पाप आदि का अनुमोदन आदि है, दूसरी में मात्र पुत्रादि कृत पाप का अनुमोदन आदि है, तीसरी में तो वह भी नहीं है-गृहस्थ में रहने से मात्र ममत्व ही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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