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अपूर्व स्थितिबंध
करणाइए अपुव्वो जो बंधो सो न होइ जा अन्नो । बंधगद्धा सा तुल्लिगा उ ठिइकंडगद्धाए ॥१५॥
शब्दार्थ –करणाइए—करण के आदि में,
अपुव्वो- अपूर्व, जो बंधो
जो बंध, सोन होइ -- वह नहीं हो जा अन्नो-जब तक अन्य, बंधगद्धाबंधकाद्धा, सा- वह, तुल्लिंगा - तुल्य, उ- और, ठिइकंडगद्धाए- स्थितिकंडक काल ( स्थितिघात काल ) ।
पंचसंग्रह :
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गाथार्थ - अपूर्वकरण के आदि में (प्रथम समय में ) जो बंध होता है, उसकी अपेक्षा अन्य दूसरा स्थितिबंध नहीं हो वहाँ तक के काल को बंधकाद्धा कहते हैं, वह बंधकाद्धास्थितिघात काल तुल्य है ।
विशेषार्थ - एक स्थितिबंध के काल को बंधकाद्धा कहते हैं । अपूर्वकरण के प्रथम समय में जो स्थितिबंध प्रारम्भ हुआ है, वही स्थितिबंध जब तक रहे, नया प्रारम्भ न हो, वहाँ तक के काल को बंधकाद्धाबंधकाल कहते हैं और वह स्थितिघात के समान है। स्थितिघात और अपूर्व स्थितिबंध एक साथ ही प्रारम्भ होते हैं और साथ ही पूर्ण होते हैं । इस तात्पर्य यह हुआ कि एक स्थितिघात करते जितना काल होता है, उतना ही काल एक स्थितिबंध करते हुए भी होता है, तत्पश्चात् नवीन बंध प्रारम्भ होता है ।
ऐसा करने का जो परिणाम होता है, उसका उपसंहार करते हुए अब अनिवृत्तिकरण का स्वरूप प्रतिपादन करना प्रारम्भ करते हैं । अपूर्वकरण का उपसंहार : अनिवृत्तिकरण का निरूपण
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जा करणाईए ठिई करणन्ते तीइ होइ संखंसो । अणिअट्टिकरणमओ मुत्तावलिसंठियं कुणड़ ॥ १६ ॥
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