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________________ उपशमनादि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४ २३ इस तरह जिसका स्थितिघात होता है, उसमें से पहले समय में जो दलिक उठाये जाते हैं उनकी रचना का क्रम उक्त प्रकार है । दूसरे समय में पहले समय की अपेक्षा असंख्यातगुण दलिक लिये जाते हैं और उदयसमय से प्रारम्भ कर पूर्वोक्त क्रम से स्थापित किये जाते हैं । इस तरह पूर्व - पूर्व समय से उत्तर-उत्तर के समय में असंख्यातगुणअसंख्यातगुण अधिक लिये जाते हैं और उनको भी उदय समय से प्रारम्भ कर पूर्व - पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर के समय में असंख्यात - असंख्यात गुणाकार रूप से स्थापित किये जाते हैं । इस तरह गुणश्र ेणि क्रियाकाल के चरमसमय पर्यन्त जिसका स्थितिघात होता है उसमें से दलिकों को ग्रहण करके उदय समय से प्रारम्भ कर स्थापित किये जाते हैं । तथा अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के समयों को अनुक्रम से अनुभव करते-करते क्षीण होने से गुणश्रेणि द्वारा होने वाला दलिकनिक्षेण अवशिष्ट समयों में होता है किन्तु समय मर्यादा से ऊपर नहीं बढ़ता है । यानि कि गुणश्र णिक्रियाकाल के प्रथम समय में- अपूर्वकरण के प्रथम समय में जितने स्थानों में दल रचना हुई थी, उससे उसके बाद के — दूसरे समय में एक कम स्थान में दलरचना होती है, तीसरे समय में दो कम स्थान में दलरचना होती है, इस तरह जैसे-जैसे अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के समय भोगते-भोगते क्रमशः कम होते जाते हैं, वैसे-वैसे कम-कम स्थानों में दल रचना होती है । अपूर्वकरण के प्रथम समय में जो अन्तिम स्थान था, वही गुणश्रेणि क्रिया पूर्ण होने तक अन्तिम स्थान के रूप में रहता है किन्तु दल रचना आगे नहीं बढ़ती है । इस प्रकार से गुणश्रेणि का स्वरूप जानना चाहिए। अब अपूर्व - स्थितिबंध का स्वरूप कहते हैं । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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