SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपशमनादि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट प १६१ का उदय होता है तब उस कषाय की गुणश्रेणि शेष कर्म की गुणश्रेणि के समान करता है । तीन आयु के बिना देवायु को बांधकर अथवा किसी भी आयु को बांधे बिना आत्मा उपशम श्रेणि कर सकती हैं, इसलिये यदि बद्धायुष्क उपशम श्रेणि करे और उपशम सम्यक्त्व के काल में चाहे किसी भी गुणस्थान में काल करे तो अवश्य वैमानिक देव में ही उत्पन्न होता है और यदि अबद्धायुष्क हो तो अन्तरकरण पूर्ण होने के बाद यानि उपशम सम्यक्त्व का काल पूर्ण होने के बाद परिणामों के अनुसार चार में से किसी भी आयु को बांधकर काल कर उस-उस गति में जाती है । है एक बार एक भव में उपशम श्रेणि कर दूसरी बार क्षपक श्रेणि कर आत्मा मोक्ष में भी जा सकती है और यदि क्षपक श्रेणि न करे तो एक भव में दो बार उपशम श्रेणि कर सकती परन्तु दो बार उपशम श्रेणि करने के बाद उसी भव में क्षपक श्रेणि नहीं कर सकती है । सम्पूर्ण भव चक्र में उपशम श्रेणि चार बार कर सकती है परन्तु सिद्धान्त के मतानुसार एक भव में क्षपक अथवा उपशम इन दोनों में से एक ही श्रेणि कर सकती है जिससे एक भव में उपशम श्रेणि की हो तो उस भव में क्षपक श्रेणि नहीं कर सकती है । इस प्रकार पुरुषवेद के उदय में श्रेणि पर आरूढ़ होने वाले की अपेक्षा जानना चाहिए | परन्तु स्त्रीवेद के उदय में श्रेणि मांड़ने वाला पहले नपुंसक वेद को उपशमित करता है । उसके बाद एक उदयसमथ को छोड़कर सम्पूर्ण स्त्रीवेद को उपशमित करता है और स्त्रीवेद के उदय के विच्छेद के साथ ही पुरुषवेद का बंधविच्छेद होता है । उसके बाद के समय में अवेदक हुआ वह आत्मा हास्यषट्क और पुरुषवेद इन सात प्रकृतियों को एक साथ उपशमित करता है । नपुंसक वेद के उदय से श्रेणि मांड़ने वाला पहले पुरुषवेद अथवा स्त्रीवेद से श्रेणि मांड़ने वाला जिस स्थान पर नपुंसकवेद को उपशमित करता है, वहाँ तक तो मात्र नपुंसकवेद को उपशमित करने की क्रिया करता है, परन्तु नपुंसक वेद का अमुक उपशम होने के बाद उसके साथ ही स्त्रीवेद को भी उपशमित करने की क्रिया करता है और नपुंसकवेद के उदय के चरम समय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy