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________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ८ १८६ के चरम समय तक ग्यारहवां गुण स्थान होता है परन्तु देवभव के प्रथम समय में ही मध्य के छह गणस्थानों का स्पर्श किये बिना चौथे गणस्थान को प्राप्त होता है और उस समय से सभी करण प्रवृत्त होते हैं। देवभव के प्रथम समय में जिस-जिस जीव के चारित्रमोहनीय की जिसजिस प्रकृति का उदय होता है उस-उस कर्म प्रकृति की द्वितीय स्थिति में जो प्रथम दलिक उपशांत हुए थे, उनमें से अपवर्तना द्वारा अन्तरकरण रूप खाली स्थान में दलिक लाकर उदयसमय से आवलिका प्रमाण काल में गोपुच्छकार और आवलिका से ऊपर प्रथम समय से गुणश्रेणि के शीर्ष तक असंख्यात गुणाकार रूप से और उसके बाद पुनः विशेष हीन-हीन स्थापित करता है तथा मोहनीय कर्म की जो प्रकृतियाँ देवभव के प्रथम समय में उदय में नहीं आती हैं, उन प्रकृतियों के दलिकों को द्वितीय स्थिति में से अपवर्तनाकरण द्वारा अन्तरकरण रूा खाली स्थान में लाकर उदयावलिका के ऊपर के प्रथम समय से गुणश्रेणि के शीर्ष तक असंख्यात गुणाकार और उसके ऊपर विशेष हीन-हीन स्थापित करता है और उससे प्रथम समय में जो अन्तरकरण रूप खाली स्थान था वहाँ भी पुनः दलिक स्थापित हो जाने से और खाली स्थान के भर जाने से अन्तरकरण नहीं रहता है। __ आयुष्य पूर्ण न हो तो भी इस गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही होने से उसके पूर्ण होने पर जीव अवश्य गिरता है और वह अद्धाक्षय रूप पतन कहलाता है। जिससे जिस क्रम से चढ़ा था उसी क्रम से यानि ग्यारहवें से दसवें, नौवें, आठवें गुणस्थान में आकर वहाँ से सातवें और छठे गुणस्थान में हजारों बार परिवर्तन कर स्थिर होता है और कोई जीव पाँचवें, कोई चौथे गुणस्थान में आकर स्थिर होता है और कोई-कोई वहाँ से गिरकर पहले गुणस्थान में भी जाता है। अद्धाक्षय से गिरने पर क्रमश: प्रथम संज्वलन लोभ, अनन्तर माया, मान और क्रोध का उदय होता है और जिस-जिस प्रकृति का जिस-जिस समय उदय होता है, उस समय उसकी द्वितीय स्थिति में रहे दलिकों को आकर्षित कर आवलिका प्रमाण काल में गोपुच्छाकार और उसके बाद गुणश्रेणि के शीर्ष भाग तक असंख्यात गुणाकार रूप और बाद में पुनः हीन-हीन दलिक स्थापित करता है एवं अवेद्यमान मोहनीय कर्म की अन्य प्रकृतियों के द्वितीय स्थिति में रहे हुए दलिकों को जब-जब अनुपशांत करे तब-तब उदयावलिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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