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उपशमनादि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ८
से नौवें गुणस्थान के अन्तिम समय न्यून दो आवलिका काल में बंधे हुए संज्वलन लोभ को दो समय न्यून दो आवलिका काल में स्वस्थान में उपशांत करता है, एवं किट्टिकरणाद्धा की बाकी रही संज्वलन लोभ की आवलिका को बुक संक्रम से प्रथम स्थिति में संक्रमित कर आवलिका प्रमाण काल में भोगकर क्षय करता है ।
दसवें गुणस्थान के प्रथम समय में किट्टिकरणाद्धा के पहले और सत्य में की कई किट्टियों के सिवाय शेष सयय में की गई प्रत्येक किट्टियों के कितने ही दलिक उदय में आ जायें इस रीति से स्थापित करता है और प्रथम समय में की गई किट्टियों के ऊपर का असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष किट्टियाँ उदीरणा द्वारा प्रथम समय में उदय में आती हैं । दूसरे समय उदयप्राप्त किट्टियों का असंख्यातवां भाग बिना भोगे ही उपशमित करता है और द्वितीय स्थिति में से उदीरणा द्वारा एक असंख्यातवें भाग प्रमाण किट्टियों को अनुभव करने के लिये ग्रहण करके उदयसमय में स्थापित कर भोगता है । इस प्रकार इस गुणस्थान के अन्तिम समय तक प्रत्येक समय उदयप्राप्त किट्टियों का एक-एक असंख्यातवां भाग अनुभव किये बिना उपशमित करता है और द्वितीय स्थिति में से उदीरणा द्वारा अपूर्व असंख्यातवें भाग प्रमाण किट्टियों को ग्रहण कर अनुभव करने के लिये उदयसमय से स्थापित करता है ।
इस गुणस्थान के प्रथम समय से चरम समय तक द्वितीय स्थिति में जो सूक्ष्म किट्टिकृत दलिक अनुपशांत हैं, उसे भी पूर्व - पूर्व के समय से आगेआगे के समय में असंख्यात गुणाकार रूप से उपशमित कर चरम समय में सम्पूर्ण उपशांत कर लेता है । इस गुणस्थान के चरम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का अन्तर्मुहूर्त प्रमाण, नाम और गोत्र कर्म का सोलह मुहूर्त और वेदनीय का चौबीस मुहूर्त प्रमाण स्थितिबंध होता है । उसके बाद के समय में आत्मा ग्यारहवें उपशांत मोहगुणस्थान में प्रवेश करती है । इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म सम्पूर्ण उपशांत हुआ होने से उसका अनुदय होता है । इस गुणस्थान का काल मरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है ।
इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशम होने से उसकी सत्ता - गत किन्हीं भी प्रकृतियों में संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा, निद्धत्ति
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