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________________ १८४ पंचसंग्रह (६) भाग का अश्वकर्णकरणाद्धा, दूसरे भाग का किट्टिकरणाद्धा और तीसरे भाग का नाम किट्रीवेदनाद्धा है। इनमें से संख्याते स्थितिघात प्रमाण अश्वकर्णकरणाद्धा काल में द्वितीय स्थिति में रहे संज्वलन लोभ के दलिकों के प्रत्येक समय अपूर्वस्पर्धक करता है। अर्थात् अनादि संसार में बन्ध द्वारा किसी भी समय संज्वलन लोभ के न किये हों वैसे इस समय बध्यमान लोभ के रसस्पर्धकों के समान सत्तागत दलिकों के रसस्पर्धकों में से कितने ही नये रस स्पर्धक बनाता है, यानि प्रवर्धमान रसाणुओं का क्रम तोड़े बिना सत्तागत रसस्पर्धकों को अनन्तगुण हीन रस वाला कर नवीन रसस्पर्धक बनाता है और वे ही अपूर्वस्पर्धक कहलाते हैं। तत्पश्चात लोभ वेदन करने के दूसरे भाग में प्रवेश करता है और वही किट्टिकरणाद्धा का काल है । उस किट्टिकरणाद्धा के प्रथम समय में संज्वलन लोभ का स्थितिबन्ध दिवसपृथक्त्व और शेष कर्मों का वर्ष पृथक्त्वप्रमाण होता है । किट्टिकरणाद्धा के प्रथम समय से चरम समय तक प्रत्येक समय द्वितीय स्थिति में रहे हुए संज्वलन लोभ के पूर्व और अपूर्व स्पर्धकों में से कि.नेक दलिकों को ग्रहण कर उनमें से अनन्त-अनन्त किट्टियां बनाता है। अर्थात पूर्व में प्रवर्धमान रसाणुओं के क्रम का त्याग किये बिना अनन्तगुण हीन रस वाले अपूर्वस्पर्धक किये थे परन्तु अब विशुद्धि का परम प्रकर्ष होने से एकोत्तर प्रवर्धमान रसाणुओं का क्रम तोड़कर अपूर्वस्पर्धक करने पर भी अनन्तगुण हीन रस करता है ।। एक रसस्पर्धक में जितनी वर्गणायें होती हैं उनके अनन्तवें भाग जितनी किट्रियां प्रथम समय में बनाता है। प्रथम समय में बनायी हई किट्रियों की अपेक्षा दूसरे समय में असंख्यातवें भाग प्रमाण किट्टियां बनाता है। इस तरह किट्टिकरणाद्धा के चरम समय तक पूर्व-पूर्व समय की अपेक्षा उत्तर-उत्तर के समय में असंख्यात.गुण हीन-हीन अर्थात् असंख्यातवें भाग प्रमाण किट्टियां बनाता है और सर्वोत्कृष्ट रसवाली किट्टियों का रस भी सर्व जघन्य रसस्पर्धक के रस से अनन्तगुण हीन अर्थात् अनन्तवें भाग जितना होता है । पूर्व-पूर्व के समय से उत्तर-उत्तर के समय में अनन्तगुण विशुद्धि होती है एवं तथास्वभाव से ही अधिक रस वाले कर्म परमाणु अल्प और अल्प रस वाले कर्म परमाणु अधिक होते हैं, जिससे प्रथम समय की गई सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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