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________________ उपशमनादि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ८ १५३ श्रेणि के क्रम से उदयसमय से लेकर असंख्यात गुणाकार रूप से स्थापित कर प्रथम स्थिति बनाकर उसका वेदन करता है । मायोदय के प्रथम समय के अप्रत्याख्यानीय, प्रत्याख्यानीय और संज्वलन इन तीनों प्रकार की माया को उपशमित करने की शुरुआत करता है और संज्वलन माया की प्रथम स्थिति समयन्यून तीन आवलिका रहे तब संज्वलन माया अपतद्ग्रह होने से अन्य प्रकृति के दलिक उसमें संक्रमित नहीं होते हैं परन्तु लोभ में ही संक्रमित होते हैं तथा प्रथम स्थिति दो आवलिका शेष रहे तब आगाल और एक आवलिका शेष रहे तब बन्ध- उदय - उदीरणा का एक साथ विच्छेद होता है और उसी समय अप्रत्याख्यानीय और प्रत्याख्यानीय माया का सम्पूर्ण उपशम हो जाता है, परन्तु संज्वलन माया का प्रथम स्थिति में एक आवलिका और द्वितीय स्थिति में समयन्यून दो आवलिका प्रमाण काल में बन्धा दलिक अनुपशांत होता है और उस अनुपशांत दलिक को भी उस समय से समयोन दो आवलिका काल में उपशमित करता है । संज्वलन माया के बन्धविच्छेद के समय संज्वलन माया और लोभ का एक मास प्रमाण तथा शेष कर्मों का संख्यात वर्ष प्रमाण स्थितिबन्ध होता है । मायोदय के विच्छेद के बाद के समय में लोभ के द्वितीय स्थिति में रहे दलिकों को खींचकर इसके बाद अब जितना काल लोभ के उदय का रहता है, उस काल के तीन भाग मान कर दो भाग प्रमाण काल में यानि नौवें गुणस्थान के काल से एक आवलिका अधिक काल प्रमाण अन्तरकरण रूप खाली स्थान में दलिकों को लाकर प्रथम समय से असंख्यात गुणाकार रूप से स्थापित कर प्रथम स्थिति बना उसका उदय शुरू करता है एवं संज्वलन माया के बन्धविच्छेद से बाद के समय में अप्रत्याख्यानीय, प्रत्याख्यानीय और संज्वलन इन तीनों लोभ को उपशमित करने की शुरुआत करता है तथा संज्वलन की प्रथम स्थिति समयन्यून तीन आवलिका बाकी रहे तब संज्वलन लोभ अपतग्रह होने से दोनों लोभ को स्वस्थान में ही उपशमित करता है परन्तु पतद्ग्रह के अभाव में संक्रमित नहीं करता है और नौवें गुणस्थान के चरम समय में अप्रत्याख्यानीय, प्रत्याख्यानीय लोभ पूर्ण उपशमित हो जाता है । जिस समय संज्वलन लोभ का उदय होता है उस समय से लोभ के उदय काल के तीन विभाग करता है और उनमें से प्रथम दो भाग में दलिकों को स्थापित करता है, यह पूर्व में कहा जा चुका है । उनमें लोभ के वेदन के पहले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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