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________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ८ १७७ स्वस्थान में परस्पर समान, उनसे नाम गोत्र का अस ख्यातगुण और स्वस्थान में परस्पर तुल्य और उनसे भी वेदनीय का स्थितिबंध असंख्यातगुण होता है। जिस समय सातकर्म का स्थितिबंध पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है उस समय से असंख्यात समयों में बंधे हुए सत्तागत दलिकों की ही उदीरणा होती है, परन्तु उससे पूर्व बंधे हुए सत्तागत दलिकों की उदीरणा नहीं होती है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म की कुछ उत्तरप्रकृतियों का देशघाति रस बंधता है। जिस-जिस समय जिस-जिस प्रकृति का देशघाति रस बंधता है, उसके पूर्व समय तक दोनों श्रेणियों (उपशम, क्षपक) में उस-उस प्रकृति का सर्वघाति रस भी बँधता था सिर्फ देशघाति नहीं, यह समझना चाहिए। वीर्यान्तराय कर्म का देशघाति रसबंध होने के बाद संख्यात हजारों स्थितिघात व्यतीत होने पर अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क आदि बारह कषाय और नव नोकषाय इस तरह चारित्रमोहनीय की इक्कीस प्रकृतियों की अन्तरकरण क्रिया आरम्भ होती है । उस अन्तरकरण क्रिया का काल एक स्थितिघात अथवा अपूर्व स्थितिबंध काल के समान अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । ___ उस अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल वाली अन्तरकरण क्रिया द्वारा एक जीव की अपेक्षा वेद्यमान चार संज्वलनकषाय में से एक कषाय और वेद्यमान तीन वेदों में से एक वेद इस प्रकार दो प्रकृतियों की प्रथमस्थिति श्रेणि में जब तक अपनाअपना उदय रहता है तब तक अन्तर्महर्त प्रमाण और शेष उन्नीस प्रकृतियों की आवलिका प्रमाण और अनेक जीवों की अपेक्षा चार संज्वलन और तीन वेद की प्रथम स्थिति श्रेणि में अपना-अपना जब तक उदय रहता है तब तक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण और शेष चौदह प्रकृतियों की उदयावलिका प्रमाण स्थिति रख, मध्य में अन्तर्मुहर्त प्रमाण स्थान में रही हुई भोगने योग्य इक्कीस प्रकृतियों के दलिकों को वहाँ से दूर कर अन्यत्र स्थापित कर उनके साथ भोगने योग्य करता है। जिस समय अन्तरकरण करने की क्रिया समाप्त होती है। उसके बाद के समय से यह सात पदार्थ प्रवर्तित होते हैं १ अभी तक मोहनीय कर्म का जो रस द्विस्थानक बंधता था। अब एकस्थानक बंधता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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