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________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ७ १७५ जिस समय यह दो गुण प्राप्त करती है उस समय से उदयावलिका से ऊपर के प्रथम समय से गुणश्रेणि करती है तथा गुण-प्राप्ति के समय से अन्तर्मुहूर्त काल तक अवश्य वर्धमान परिणाम वाली होने से पूर्व-पूर्व के समय से उत्तर-उत्तर के समय में ऊपर से असंख्यातगुण दलिकों को अवतरित कर अन्तर्महत काल तक में असंख्यात गुणाकार रूप में स्थापित करती है। तत्पश्चात् गुण-प्राप्ति के समय की अपेक्षा अथवा जिस समय गणश्रेणि का विचार करते हैं, उससे पूर्व के समय की अपेक्षा किसी जीव को वर्धमान, किसी जीव को अवस्थित अर्थात् पूर्ववत् सदृश-समान, तुल्य और किसी जीव को हीयमान परिणाम भी होते हैं, जिससे गुणश्रेणि भी समान नहीं होती है। परन्तु वर्धमान परिणाम होने पर परिणामों के अनुसार ऊपर से प्रतिसमय असंख्यातभाग अधिक, संख्यातभाग अधिक, संख्यातगण अधिक अथवा असंख्यातगुण अधिक दलिक उतरते हैं और यदि अवस्थित परिणाम हों तो ऊपर से प्रत्येक समय समान दलिक उतरते हैं और हीयमान परिणाम होने पर पूर्व-पूर्व समय की अपेक्षा उत्तर-उत्तर के समय में परिणामानुसार ऊपर से असंख्यातभाग हीन, संख्यातभाग हीन, संख्यातगण हीन अथवा असंख्यातगुण हीन दलिक उतरते हैं । जिस समय दलिक उतरते हैं, उसी समय अनुदयवती प्रकृतियों की उदयावलिका के ऊपर प्रथम समय से और रसोदयवती प्रकृतियों में उदयसमय से अन्तर्मुहूर्त काल तक के स्थानों में अनुक्रम से असंख्यात गुणाकार रूप से निक्षिप्त करता है। इस प्रकार जब तक देशविरति अथवा सर्वविरति रहे तब तक गुणश्रेणि भी चालू रहती है और सर्वत्र अन्तर्महुर्त काल तक के समान स्थानों में दलिक रचना होती है। जानबूझकर व्रतों का भंग निष्ठुर परिणाम बिना होता नहीं है, इससे जो जानबूझकर व्रतों का भंगकर इन दो गुणों से आत्मा नीचे उतरे तो पुनः यथाप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण करके ही इन दो गुणों को प्राप्त कर सकती है परन्तु, अनजान में प्रबल मोहनीय कर्म के उदय से जो आत्मायें अधोवर्ती गणस्थानों में जाती हैं, उनके वैसे निष्ठर परिणाम न होने से इन दो करणों को किये बिना भी पुनः देशविरति अथवा सर्वविरति प्राप्त हो सकती है। 00 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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