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परिशिष्ट : ७
चारित्रमोहनीय की उपशमना का स्वामित्व
संक्लिष्ट परिणामों का त्याग कर अनन्तगुण विशुद्धि में वर्तमान चौथे से सातवें तक चार गुणस्थानों में से किसी भी एक गुणस्थान में वर्तमान क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि चारित्रमोहनीय की उपशमना का प्रयत्न करता है | चारित्रमोहनीय का उपशम नौवें दसवें गुणस्थान में ही होता है, जिससे चारित्रमोहनीय की उपशमना का प्रयत्न करती आत्मा देशविरति प्राप्त करके अथवा बिना करे किन्तु सर्वविरति प्राप्त करने के अनन्तर नौवें और दसवें गुणस्थान में जाकर चारित्रमोहनीय का उपशम करती है ।
पांच अणुव्रतों में से कोई एक अणुव्रत ग्रहण करे वह जघन्य, दो, तीन यावत् पांचों अणुव्रत ग्रहण करे वह मध्यम और संवासानुमति को छोड़कर शेष पाप व्यापार का त्याग करे वह उत्कृष्ट देशविरत कहलाता है और इस संवासानुमति का भी त्याग कर दिये जाने पर सर्वविरत कहलाता है ।
देशविरति प्राप्त करने वाला अविरतसम्यग्दृष्टि और सर्वविरति प्राप्त करने वाला अविरतसम्यग्दृष्टि अथवा देशविरत इन दोनों में से कोई भी होता है । देश - विरति और सर्वविरति प्राप्त करने के लिए यथाप्रवृत्त और अपूर्व करण यह दो करण करता है । करणकाल के अन्तर्मुहूर्त के पहले भी प्रतिसमय अनन्तगुण विशुद्धयमान परिणामी आदि उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति में तीन करण के पहले बताई गई समस्त योग्यता वाला होता है और उसी प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पूर्व में बताये गये स्वरूप वाले यथाप्रवृत्त और अपूर्वकरण करता है । परन्तु यहाँ अपूर्वकरण में गुणश्रेणि नहीं होती, इतनी विशेषता है ।
मोहनीय कर्म की किसी भी प्रकृति का सर्वथा क्षय अथवा उपशम करना हो तब तीसरा अनिवृत्तिकरण भी होता है । परन्तु इन दो गुणों को प्राप्त करने पर मोहनीय कर्म की किसी भी प्रकृति का सर्वथा क्षय अथवा उपशम नहीं होता है, परन्तु देशविरति प्राप्त करने पर अप्रत्याख्यानावरण कषाय का और सर्वविरति प्राप्त करने पर प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम होता है, जिससे तीसरा अनिवृत्तिकरण नहीं होता है, किन्तु अपूर्वकरण की समाप्ति के बाद पहले समय में ही आत्मा देशविरति अथवा सर्वविरति प्राप्त करती है ।
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