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________________ १७० पंचसंग्रह (8) इस प्रकार अपूर्वकरण में स्थितिघात आदि पदार्थ प्रवर्तित होते हैं जिससे अपूर्वकरण के प्रथम समय में आयु के बिना शेष कर्मों की जितनी स्थितिसत्ता और जितना नवीन स्थितिबंध होता है, उसकी अपेक्षा इस करण के चरम समय में संख्यातगुण हीन अर्थात् संख्यातभाग प्रमाण स्थितिसत्ता और नवीन स्थितिबंध होता है। ___इसी प्रकार अनिवृत्तिकरण में भी स्थितिघात आदि पदार्थ प्रवर्तित होते हैं । परन्तु इस करण से दर्शनत्रिक का सम्पूर्ण क्षय करना प्रारम्भ होने से इन तीनों प्रकृतियों के स्थितिघात आदि अत्यधिक वृहत् प्रमाण में होते हैं, एवं अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय से दर्शनत्रिक में देशोपशमना, निद्धत्ति और निकाचना इन तीन में से कोई भी करण नहीं लगते हैं, अर्थात् दर्शनत्रिक के सत्तागत दलिकों में इस करण के प्रथम समय से देशोपशमना, निद्धत्ति तथा निकाचना नहीं होती है। इस करण में हजारों स्थितिघात व्यतीत होने के बाद असंज्ञी पंचेन्द्रिय की स्थितिसत्ता जितनी दर्शनत्रिक की सत्ता रहती है। तत्पश्चात पुनः पुनः हजारों स्थितिघात होने के बाद क्रमशः चतुरिन्द्रिय जीवों जितनी, त्रीन्द्रिय जीवों के बराबर, द्वीन्द्रिय जीवों के बराबर और उसके बाद पुनः हजारों स्थितिघात होने के अनन्तर पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण दर्शनत्रिक की स्थितिसत्ता रहती है । तत्पश्चात दर्शनत्रिक की जितनी स्थितिसत्ता है उसके संख्यात भाग करके एक संख्यातवां भाग शेष रख बाकी के संख्यात भागों का नाश करता है । पुनः शेष रहे संख्यातवें भाग के संख्यात भाग कर एक संख्यातवाँ भाग रख शेष समस्त भागों का नाश करता है। इस प्रकार बाकी रहे हुए संख्यातवें भाग के हजारों बार संख्यात-संख्यात भाग करके और एक-एक संख्यातवाँ भाग रख शेष सभी संख्यात भागों का नाश करता है। __ इस तरह से हजारों स्थितिघात जाने के बाद मिथ्यात्वमोहनीय की जो स्थितिसत्ता है उसके असंख्यात भाग करके उनमें से एक असंख्यातवाँ भाग रख शेष सभी असंख्यात भागों का नाश करता है । पुनः शेष रहे एक असंख्यातवें भाग के असंख्यात भाग कर एक असंख्यातवाँ भाग बाकी रख शेष समस्त असंख्यात भागों का नाश करता है। इस प्रकार शेष रहे मिथ्यात्व के एक-एक असंख्यातवें भाग के असंख्यात-असंख्यात भाग कर और उनमें से एक-एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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