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________________ परिशिष्ट : ६ दर्शनत्रिक क्षपणा की विधि उपशम सम्यक्त्वी जैसे दर्शनमोहनीयत्रिक की उपशमना करके उपशम श्रेणि करता है, उसी प्रकार दर्शनमोहत्रिक का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि भी उपशम श्रेणि करता है । अतएव यहाँ दर्शनमोहत्रिक की क्षपणा की विधि का संक्षेप में दिग्दर्शन कराते हैं । यदि इस काल और इस क्षेत्र की अपेक्षा आदिनाथ भगवान के केवलज्ञानोत्पत्ति के समय से जम्बू स्वामी के केवलज्ञानोत्पत्ति के समय तक और सामान्य से सर्व क्षेत्रों की अपेक्षा विचार करें तो जिस काल में केवलज्ञान उत्पन्न हो सके उस काल में प्रथम संहननी, कम से कम आठ वर्ष की आयुवाला चौथे से सातवें तक किसी भी गुणस्थानवर्ती क्षायोपशमिक सम्यग् - दृष्टि मनुष्य यथाप्रवृत्त आदि तीन करण करके दर्शनत्रिक का क्षय कर सकता है । यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों का स्वरूप जैसा पूर्व में बताया गया है, तदनुरूप यहां भी समझना चाहिये परन्तु अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में जो विशेषता है, उसका यहाँ संकेत करते हैं । प्रथम गुणस्थान में विशुद्धि अल्प होने से जितने काल और जितने प्रमाण में स्थितिघातादि होते थे उसकी अपेक्षा यहाँ अनन्तगुण विशुद्धि होने से छोटे अन्तर्मुहूर्त में और वृहत् प्रमाण में स्थितिघातादि करता है, एवं अपूर्वकरण के प्रथम समय से मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय के उद्वलना एवं गुण यह दो संक्रम होते हैं । परन्तु दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का परस्पर संक्रम नहीं होने से सम्यक्त्वमोहनीय का केवल उवलनासंक्रम होता है और स्थितिघात से द्वितीय स्थिति में से उतारे गये दलिकों को सम्यक्त्वमोहनीय में ही उदयावलिका के प्रथम समय से गुणश्रेणि पर्यन्त भाग तक असंख्यात गुणाकार और पश्चात् विशेष हीन-हीन स्थापित करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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