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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७६
१०५ रस वाली तीसरी इस तरह सर्वोत्कृष्ट रस वाली अन्तिम इस प्रकार स्थापित करना चाहिये और उनमें दलिक विशेषहीन-विशेषहीन हैं। जैसे कि प्रथम किट्टि में अधिक दलिक, उससे अनन्तगुणाधिक रस वाली दूसरी किट्टि में विशेषहीन, उससे अनन्तगुणाधिक तीसरी किट्टि में विशेषहीन दलिक, इस प्रकार सर्वोत्कृष्ट किट्टि पर्यन्त विशेषहीन दलिक समझना चाहिये तथा सभी समयों की किट्टियों की स्थापना जैसे पूर्व पूर्व किट्टि के दलिक से उत्तरोत्तर किट्टि का दलिक विशेषहीन-विशेषहीन होता है, वैसे ही एक समय में हुई किट्टियों में भी जानना चाहिये । वह इस प्रकार
पहले समय में की गई किट्टियों में जो अल्परस वाली किट्टि है, उसमें दलिक बहुत अधिक हैं, उससे अनन्तगुणाधिक रस वाली दूसरी किट्टि में दलिक विशेषहीन हैं, उससे अनन्तगुणाधिक रस वाली तीसरी किट्टि में दलिक विशेषहीन हैं। इस प्रकार उत्तर-उत्तर की अनन्तगुणाधिक रस वाली किट्टियों में विशेषहीन-विशेषहीन दलिक पहले समय की गई किट्टियों में जो सर्वोत्कृष्ट रस वाली किट्टि है, वहाँ तक जानना चाहिये । इसी प्रकार प्रत्येक समय की किट्टियों के लिये भी समझना चाहिए । तथा
आइमसमयकयाणं मंदाईणं रसो अणन्तगुणो। सबुक्कस्सरसा वि हु उवरिमसमयस्सऽणतंसे ॥७६॥
शब्दार्थ-आइमसमयकयाणं--प्रथम समय में की गई, मन्दाईणंजघन्य, रसो--रस, अणंतगुणो-अनन्तगुण, सव्वुक्कस्सरसा-सर्वोत्कृष्ट रस, वि-भी, उरिमसमयस्सऽणतंसे ऊपर के समय की अनन्तवें भाग ।
गाथार्थ-प्रथम समय में की गई जघन्य रस वाली किट्टि से लेकर सर्वोत्कृष्ट रस वाली किट्टि पर्यन्त उत्तरोत्तर अनन्तगुण रस जानना चाहिये । ऊपर के समय की सर्वोत्कृष्ट रस वाली
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