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उपशमनादि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७१, ७२
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हैं किन्तु मानादिक में संक्रमित होते हैं । प्रथमस्थिति की दो आवलिका बाकी रहें तब आगाल का विच्छेद होता है, मात्र उदीरणा होती है और वह भी प्रथमस्थिति की एक आवलिका शेष रहे, तब तक ही होती है । उदयावलिका के चरम समय में संज्वलन क्रोधादि चारों का स्थितिबंध चार मास का और शेष कर्मों का संख्याता हजार वर्ष का होता है तथा उदीरणावलिका के चरम समय में संज्वलनक्रोध का बंध, उदय और उदीरणा इन तीनों का एक साथ ही विच्छेद होता है और उसी समय अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध पूर्ण रूप से उपशमित हो जाता है ।
जिस समय संज्वलनक्रोध का उदयविच्छेद होता है, उस समय उदयावलिकागत दलिक और समयोन दो आवलिकाकाल में बंधे हुए दलिक को छोड़कर संज्वलनक्रोध का शेष सभी दलिक शान्त हो जाता है । उस समयोन दो आवलिकाकाल में बंधे हुए दलिक को उतने ही काल में पुरुषवेद के लिये कहे गये क्रमानुसार उपशमित करता है तथा जिस प्रकार तीनों क्रोधों को उपशान्त करता है, उसी प्रकार से शेष अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन मान, माया और लोभ कषाय को उपशमित करता है । उन प्रत्येक की प्रथम स्थिति की जो आवलिका शेष रहती है उसे उत्तर- उत्तर की कषाय में स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रमित करके अनुभव करता है ।
जिसका विशेषता के साथ स्पष्टीकरण इस प्रकार है
जब संज्वलनक्रोध का बंध, उदय और उदीरणा का विच्छेद होता है, तब उसकी प्रथम स्थिति की एक आवलिका शेष रहती है और उस शेष आवलिका को स्तिबुकसंक्रम द्वारा मान में प्रक्षेप करके अनुभव करता है और जो समयन्यून दो आवलिकाकाल में बंधा हुआ अनुपशान्त दलिक सत्ता में है, उसे उतने ही काल में यानि बंधविच्छेद समय से समयोन दो आवलिकाकाल और अबंध के प्रथम समय से दो
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