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________________ पचस ग्रह : ६ क्रोधत्रिक को, आढवेइ-प्रारम्भ करता है, उवसमिउं--उपशमित करना, तिसु-तीन आवलिका, पडिग्गहया---पतद्ग्रहता, एक्का--एक की (संज्वलनक्रोध की), उदओ- उदय, य--और, उदीरणा-उदीरणा, बंधो-बंध । फिट्टन्ति-नष्ट होती है, आवलीए --आवलिका, सेसाए-- शेष रहने पर, सेसय-शेष, तु-और, पुरिससमं--पुरुषवेद के समान, एवं-इसी प्रकार, सेसकसाया-शेष कषायों को, वेयइ-वेदन करता है थिबुगेण---स्तिबुक संकम द्वारा, आवलिया--आवलिका । गाथार्थ-अवेदकपने के प्रथम समय से तीन क्रोध को उपशमित करना प्रारम्भ करता है। प्रथमस्थिति की तीन आवलिका बाकी रहे तब संज्वलन क्रोध की पतद्ग्रहता नष्ट हो जाती है और एक आवलिका शेष रहने पर उदय, उदीरणा और बंध नष्ट हो जाता है। शेष पुरुषवेद के समान जानना चाहिए । इसी प्रकार शेष कषायों को उपशमित करता है तथा अन्तिम आवलिका को स्तिबुकसंक्रम द्वारा वेदन करता है। विशेषार्थ-जिस समय पुरुषवेद का अवेदक होता है तो उस अवेदकपने के प्रथम समय से लेकर अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन क्रोध इन तीनों क्रोध को एक साथ उपशमित करना प्रारम्भ करता है। उपशमन करते पूर्व-पूर्व समय से उत्तरोत्तर समय में असंख्यात-असंख्यातगुण उपशमित करता जाता है। इन तीनों की उपशमनक्रिया प्रारम्भ करते जो स्थितिबंध होता है, उसके बाद का संज्वलन का संख्यातभागहीन और शेष कर्मों का संख्यातगुणहीन स्थितिबंध होता है तथा शेष स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि और गुणसंक्रम पूर्व के समान ही होता है। संज्वलनक्रोध की प्रथमस्थिति जब समयोन तीन अवलिका शेष रहे तब उसकी पतद्ग्रहता नष्ट हो जाती है। यानि संज्वलनक्रोध में अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण क्रोध के दलिक संक्रमित नहीं होते www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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