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________________ ८२ पंचसंग्रह : ६ शांत करके सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में जाता है। इस प्रकार अन्तरकरण ऊपर की अपेक्षा समान स्थिति वाला है और अधोभाग की अपेक्षा उक्त न्याय से विषम स्थिति वाला है। तथा अंतरकरणेण समं ठितिखंडगबंधगद्धनिप्फत्ति । अंतरकरणाणंतरसमए जायंति सत्त इमे ॥२॥ एगट्ठाणाणुभागो बंधो उदीरणा य संखसमा । अणुपुव्वी संकमणं लोहस्स असंकमो मोहे ॥६३॥ बद्धं बद्ध छसु आवलीसु उवरेणुदीरणं एइ। पंडगवेउवसमणा असंखगुणणाइ जावंतं ॥६४॥ शब्दार्थ-अंतरकरणेणसमं–अंतरकरण के साथ, ठितिखंडगबंधगद्धनिष्फत्ति-स्थितिघात, अपूर्व स्थितिबंध की निष्पत्ति, अंतरकरणाणतरसमए -अंतरकरण के अनन्तर समय में, जायंति-होते हैं, सत्त-सात, इमे-यह । एगट्ठाणाणुभागो-एकस्थानक रसबंध, बंधो-स्थितिबधं, उदीरणाउदीरणा, य-और, संखसमा-संख्यात वर्ष के बराबर, अणुपुन्वीसंकमणंआनुपूर्वी-संक्रमण, लोहस्स-लोम का, असंकमो-संक्रमण का अभाव, मोहे-मोहनीय कर्म में। ___ बद्ध बद्ध उसु आवलीसु-बधे हुए दलिक की छह आवलिका, उवरेणुदीरणं-जाने के बाद उदीरणा. एह-होती है, पंडगवेउवसमणा-नपुंसकवेद की उपशमना, असंखगुणणाइ-असंख्यात गुणाकार रूप से, जातअन्तपर्यन्त । गाथार्थ-अन्तरकरण के साथ ही स्थितिघात और अपूर्व स्थितिबंध की निष्पत्ति होती है। अन्तरकरण के अनन्तर समय में निम्नलिखित सात पदार्थ होते हैं १. मोहनीय का एक स्थानक रसबंध, २. मोहनीय का संख्यात वर्ष प्रमाण स्थितिबंध, ३. मोहनीय की संख्यात वर्ष की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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