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पंचसंग्रह : ८ विशेषार्थ-पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून एक सागरोपम प्रमाण अतिहीन मिश्रमोहनीय की स्थितिसत्ता वाला कोई एकेन्द्रिय एकेन्द्रिय भव में से निकलकर संज्ञी पंचेन्द्रिय में उत्पन्न हो और वहाँ उसे जिस समय से लेकर अन्तमुहूर्त के बाद मिश्रमोहनीय की उदीरणा दूर होगी उस समय वह मिश्रगुणस्थान प्राप्त करे। अन्तमुहूर्त के चरम समय में- मिश्रगुणस्थान के चरम समय में वह जीव मिश्रमोहनीय की जघन्य स्थिति-उदीरणा करता है। एकेन्द्रिय को कम से कम जितनी स्थिति की सत्ता हो सकती है, उससे हीन स्थिति वाली मिश्रमोहनीय प्रकृति उदीरणायोग्य नहीं रहती है। क्योंकि पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून सागरोपम से भी जब स्थिति कम होती है तब मिथ्यात्वमोहनीय का उदय संभव होने से मिश्रमोहनीय की उद्वलना होना सम्भव है ।' तथा
बध्यमान नामकर्म की प्रकृतियों की जितनी जघन्य स्थितिसत्ता हो सकती है, उतनी यानि कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून सागरोपम के सात भाग में से दो भाग (२/७) प्रमाण वैक्रियषट्क-वैक्रियशरीर, वैक्रियसंघात, वैक्रियबंधनचतुष्टय-की स्थिति की सत्ता वाला वायु१ एकेन्द्रिय कम से कम पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून सागरोपम के तीन
भाग, दो भाग सागरोपम आदि स्थिति तो बांधते हैं, जिससे बध्यमान प्रकृतियों की स्थितिसत्ता उससे तो कम हो नहीं सकती। अवध्यमान वैक्रियषट्क आदि प्रकृतियों की उससे भी जब स्थिति कम होती है तब उबलना संभव होने से वह उदययोग्य नहीं रहता है। इसीलिये मिश्रमोहनीय के लिए कहा है कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून सागरोपम से भी जब उसकी स्थितिसत्ता कम होती है तब उसकी उद्वलना होती है। इसीलिये मिश्रमोहनीय की पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून सागरोपम प्रमाण स्थिति जघन्य उदीरणायोग्य कही है-उससे न्यून नहीं। क्योंकि उससे हीन स्थिति उदययोग्य ही नहीं रहती है।
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