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पंचसंग्रह : ८ इसका कारण यह है कि उसे सत्ता में अति जघन्य स्थिति है और नवीन बंध भी सत्ता के समान या कुछ अधिक करता है, जिससे उपयुक्त प्रकृतियों की उदीरणा का स्वामी स्थावर है । स्थावर से त्रस को बंध और सत्ता अधिक होती है, इसीलिए उसका निषेध किया है।
उक्त इक्कीस प्रकृतियों में से आतप और उद्योत के सिवाय उन्नीस प्रकृतियां ध्रुवबंधिनी होने से और आतप, उद्योत की कोई प्रतिपक्षी प्रकृति न होने से एवं इन प्रकृतियों की जितनी अल्प स्थिति की उदीरणा स्थावर करता है, उससे अल्प अन्य कोई नहीं कर सकने से, उक्त स्वरूप वाला स्थावर इन प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का उदीरक कहा है। तथा
एगिदियजोगाणं पडिवक्खा बंधिऊण तव्वेई । बंधालिचरमसमये तदागए सेसजाईणं ॥३३॥
शब्दार्थ-एगिदियजोगाणं--एकेन्द्रिय के योग्य, पडिवक्खा–प्रतिपक्षा प्रकृतियों को, बंधिऊण-बांधकर, तव्वेइ ---तवेदक, बंधालिचरमसमये-- बंधावलिका के चरम समय में, तदागए---उसमें से-एकेन्द्रिय में से, आया हुआ, सेसजाईणं--शेष जातियों की ।
___ गाथार्थ-प्रतिपक्षा प्रकृतियों को बांधकर बधावलिका के चरम समय में तवेदक एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों की जघन्य स्थिति की उदीरणा करता है। उसमें से- एकेन्द्रिय में से-आया हुआ शेष जातियों की इसी प्रकार जघन्य स्थिति की उदीरणा करता है।
निद्राद्विक का ग्यारहवें गुणस्थान तक उदय होता है और वहाँ उसकी स्थिति सत्ता एकेन्द्रिय से भी न्यून सम्भव है, अतएव उसकी जघन्य स्थिति की उदीरणा वहाँ कहना चाहिए, परन्तु कही नहीं है । विज्ञजन एस्पट करने की कृपा करें।
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