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________________ ४२ पंचसंग्रह ८ कोई एक जीव तथाविध परिणामविशेष से नरकगति को बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बांधकर शुभ परिणाम विशेष से देवगति की दस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बांधना प्रारम्भ करे तो बंधती हुई उस देवगति की स्थिति में उसकी उदयावलिका से ऊपर बंधावलिका जिसकी बीत गई है, ऐसी और उदयावलिका से ऊपर की कुल दो आवलिकान्यून नरकगति की समस्त स्थिति संक्रमित करता है, जिससे देवगति की एक आवलिका न्यून बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति की सत्ता होती है । देवगति को बांधते हुए जघन्य से अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त बांधता है । वह अन्तर्मुहूर्त आवलिकान्यून बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण देवगति की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता में से कम होता है । बांधने के बाद काल करके अनन्तर समय में देव हो तो देवत्व अनुभव करते हु उसे देवगति की अंतमुहूर्त न्यून बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति उदीरणायोग्य होती है । प्रश्न- उक्त युक्ति के अनुसार आवलिका अधिक अन्तर्मुहूर्त न्यून स्थिति उदीरणायोग्य होती है तो फिर अन्तर्मुहूर्त न्यून क्यों कहा है ? उत्तर - यहाँ अन्तर्मुहूर्त न्यून कहने में कोई दोष नहीं है । क्योंकि अन्तर्मुहूर्त में आवलिका का प्रक्षेप किया जाये तो भी वह अन्तर्मुहूर्त ही होता है, मात्र उसे बड़ा समझना चाहिये । इसी प्रकार देवानुपूर्वी के लिये भी तथा शेष विकलत्रिक आदि प्रकृतियों की भी उदीरणायोग्य उत्कृष्ट स्थिति का स्वयमेव विचार कर लेना चाहिये । उक्त प्रश्नोत्तर का आशय यह है कि देवगति का उत्कृष्ट स्थिति - बंध करने के बाद अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर मरण को प्राप्त हो और वह अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति प्रदेशोदय द्वारा भोग ली जाती है, इसलिए अन्तर्मुहूर्त न्यून कही है और आवलिकान्यून बीस कोडाकोडी की तो देवगति की उत्कृष्ट स्थिति की सत्ता ही होती है । किसी भी संक्रमोत्कृष्टा प्रकृति की अपनी मूलप्रकृति की स्थिति जितनी सत्ता नहीं होती For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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