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________________ उदीरणाकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाया २७ ३. उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणा होती है। इसलिये वे दोनों सादि-सांत हैं । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय, नाम और गोत्र इन पांच कर्मों की अजघन्य स्थिति- उदीरणा अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस तरह तीन प्रकार की है । उसमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय की जघन्य स्थिति - उदीरणा क्षीणकषाय के उसकी समयाधिक आवलिका शेष रहे तब होती है और शेष काल में अजघन्य होती है । वह अजघन्य स्थिति- उदीरणा अनादि काल से हो रही होने से अनादि है, अभव्य के ध्रुव और भव्य के अध्रुव है । नाम और गोत्र की जघन्य स्थिति - उदीरणा सयोगिकेवली के चरमसमय में होती है, उसको एक समय मात्र होने से सादि- सांत है । उसके सिवाय शेष सभी अजघन्य स्थिति उदीरणा है । वह अनादि काल से हो रही है, अतएव अनादि है । अभव्य के ध्रुव और भव्य के अध्रुव है। शेष जघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट विकल्प सादि, अध्रुव हैं । जो इस प्रकार - इन पांचों कर्मों की जघन्य स्थिति - उदीरणा में सादि अब भंग अजघन्य स्थिति उदीरणा के प्रसंग में कहे जा चुके हैं और उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणा मोहनीयकर्म की तरह मिथ्यादृष्टि को परावर्तन के क्रम से होने के कारण सादि-सांत है ।. इस प्रकार से मूल प्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा का आशय जानना चाहिए | अब उत्तरप्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा करते हैं उत्तर प्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा मिच्छत्तस्स चउहा धुवोदयाणं तिहा उ अजहन्ना । सेसविगप्पा दुविहा सव्वविगप्पा उ सेसाणं ||२७| 1 शब्दार्थ - मिच्छत्तस्स - मिथ्यात्व की, चउहा- चार प्रकार की, धुबोदयाणं - ध्रुवोदया प्रकृतियों की, तिहा- तीन प्रकार की उ— और अजहन्ना --अजघन्य, सेसविगप्पा - शेष विकल्प, दुविहा- दो प्रकार के, सव्वविगप्पा — सर्व विकल्प, उ-- और, सेसागं- शेष प्रकृतियों के । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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