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उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २२ है। क्योंकि प्रारम्भ के अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त सभी देवों के हास्य, रति और साता का ही उदय होता है तथा नारक उत्पत्ति के प्रथम समय से लेकर अन्तमुहूर्त पर्यन्त अवश्य शोक, अरति एवं असातावेदनीय के ही उदी रक होते हैं। इसका कारण यह है कि नारकों के उस समय शोक, अरति तथा असातावेदनीय का ही उदय होता है। ___आद्य अन्तर्मुहूर्त बीतने के बाद देव और नारक परावर्तन के क्रम से छहों प्रकृतियों में से यथायोग्य जिनका उदय होता है उनके उदीरक होते हैं । ये छह प्रकृतियां परावर्तमान हैं और परावर्तमान होने से सर्वदा अमुक प्रकृतियों का ही उदय नहीं हो सकता है। नारकों का अधिक काल असाता के उदय में ही व्यतीत होता है और साता का उदय तीर्थंकर के जन्मकल्याणक आदि प्रसंगों पर तथा देवों का अधिक काल साता के उदय में जाता है और असाता का उदय तो मात्सर्यादि दोषों की उत्पत्ति, प्रियवियोग एवं च्यवनादि प्रसंगों पर संभव है। ___ कितने ही नारक जो कि तीव्र पाप के योग से नरकों में उत्पन्न हए हैं, उनको अपनी भवस्थिति पर्यन्त असातावेदनीय का ही उदय संभव होने से वे उसी के-आसातावेदनीय के ही उदीरक होते हैं। तथा
हासाईछक्कस्स उ जाव अपुव्वो उदीरगा सव्वे । उदओ उदीरणा इव ओघेणं होइ नायव्वो ॥२२॥
शब्दार्थ-हासाईछक्कस्स-हास्यादिषट्क के, उ-ही, जाव ---पर्यन्त के, अपु-वो- अपूर्वकरण, उदीरगा--उदीरक, सवे- सभी, उदओ-उदय, उदीरणा इव-उदीरणा के समान, ओघेणं-- सामान्य से, होइ–हैं, नायव्वोजानने योग्य ।
गाथार्थ-अपूर्वकरणगुणस्थान पर्यन्त के सभी जीव हास्यादिषट्क के उदीरक होते हैं। सामान्य से उदीरणा के समान ही उदय जानने योग्य है।
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