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उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २०
३ कर्मप्रकृति उदीरणाकरण गाथा १८ में कहा है-जिस समय इन्द्रियपर्याप्ति से पर्याप्त होता है, उसके बाद के समय से लेकर क्षपकश्रेणि और क्षीणमोहगुणस्थान में वर्तमान जीवों को छोड़कर (उपशांतमोहगुणस्थान पर्यन्त) शेष सभी जीव निद्रा और प्रचला की उदीरणा के स्वामी हैं। तथा__ मिथ्यादृष्टि से लेकर छठे प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त वर्तमान समस्त जीव साता-असाता वेदनीय की उदीरणा करते हैं। अन्य अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानवर्ती अति विशुद्ध परिणाम वाले होने से तद्योग्य अध्यवसायों के अभाव में दोनों वेदनीयकर्म में से किसी की उदीरणा नहीं करते हैं। मात्र उनके साता-असाता में से एक का उदय ही होता है । तथा
अपमत्ताईउत्तरतणू य अस्संखयाउ वज्जेत्ता । सेसानिदाणं सामी सबंधगंता कसायाणं ॥२०॥
शब्दार्थ-अपमत्ताई-अप्रमत्तादि, उत्तरतणू-उत्तर शरीर वालों, य-और, अस्संखयाउ–असंख्यात वर्षायुष्कों को, वज्जेत्ता–छोड़कर, सेसानिदागं—शेष निद्राओं के, सामी-स्वामी, सबंधगंता-अपने बंधविच्छेद तक, कसायानं-कषायों के ।
___ गाथार्थ-अप्रमत्तादि उत्तर शरीर वालों और असंख्यात वर्षायुष्कों को छोड़कर शेष जीव शेष निद्राओं की उदीरणा के स्वामी हैं । जिस कषाय का गुणस्थानों में जहाँ-जहाँ बन्धविच्छेद होता है, वहाँ तक में वर्तमान जोव उस-उस कषाय की उदीरणा के स्वामी हैं।
१ इन्दियपज्जत्तीए दुसमयपज्जत्तगाए पाउग्गा । निद्दापयलाणं खीणरागखवगे परिच्चज्ज ।
--कर्मप्रकृति, उदीरणाकरण अधिकार, गाथा १८
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