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________________ उदीरणाकरण प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६ १६ सुस्वर नाम की उदीरणा के स्वामी हैं तथा नारक एवं जिनको उनका उदय हो ऐसे पर्याप्त मनुष्य, तिथंच अप्रशस्त विहायोगति एवं दुःस्वर की उदीरणा के स्वामी हैं। तथा पर्याप्त विकलेन्द्रियों में से कितनेक सुस्वर की और कितने ही दुःस्वर की उदीरणा के स्वामी हैं । लब्धि-अपर्याप्त विकलेन्द्रियादि के विहायोगति और स्वर का उदय नहीं होता है । तथा ऊसासस्स सरस्स य पज्जत्ता आणुपाणभासासु । जा ण निरुम्भइ ते ताव होंति उद्दीरगा जोगी ॥१६॥ शब्दार्थ- ऊसासस्स-श्वासोच्छ्वास के, सरस्स--स्वर के, य-और पज्जत्ता-पर्याप्त, आणुपाणभासासु-आनप्राण और भाषा पर्याप्ति से, जाजब तक, ण-नहीं, निरुम्भइ–निरोध करते हैं, ते—उनके, ताव-तब तक, होंति -होते हैं, उद्दीरगा-उदीरक, जोगी-सयोगिकेवली। गाथार्थ-आनप्राण और भाषा पर्याप्ति से पर्याप्त अनुक्रम से श्वासोच्छवास और स्वर के उदीरक हैं तथा जब तक उन दोनों का निरोध नहीं होता है, तब तक उन दोनों के सयोगिकेवली उदीरक हैं। विशेषार्थ-उच्छवास और स्वर के साथ आनप्राण एवं भाषा शब्द का अनुक्रम से योग करके यह तात्पर्य समझना चाहिये कि श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति से पर्याप्त समस्त जीव उच्छ वासनामकर्म की उदीरणा के स्वामी हैं तथा भाषापर्याप्ति से पर्याप्त सभी जीव स्वर १ लब्धि-अपर्याप्त मनुष्य तिर्यंचों के उक्त प्रकृतियों का उदय ही नहीं होता है। क्योंकि उनको आदि के २१ और २६ प्रकृतिक ये दो ही उदयस्थान होते हैं । पर्याप्तनाम के उदय वाले मनुष्य तियंचों में किसी को शुभ विहायोगति और सुस्वर का और किसी को अशुभ विहायोगति व दुःस्वर का उदय होता है और जिसको जिसका उदय होता है, वह उसकी उदीरणा करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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