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पंचसंग्रह : ८ चौदह पूर्वधर प्रमत्तसंयतगुणस्थानवी जीव उसकी उदीरणा करते हैं । अर्थात् उसकी उदीरणा के स्वामी हैं। तथा
तेत्तीसं नामधुवोदयाण उद्दीरगा सजोगीओ। लोभस्स उ तणुकिट्टीण होंति तणुरागिणो जीवा ॥१०॥
शब्दार्थ-तेत्तीसं- तेतीस, नामधुवोदयाण-नाम की ध्र वोदया प्रकृतियों के, उद्दोरगा- उदीरक, सजोगीओ ---सयोगिकेवली तक के, लोमस्स-लोभ की, उ-और, तगुकिट्टी ग-सूक्ष्म किट्टियों के, होंति-होते हैं, तगुरागिणोतनुरागि-सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवर्ती, जीवा--जीव ।
गाथार्थ-नामकर्म को ध्र वोदया तेतीस प्रकृतियों के उदीरक सयोगिकेवलीगुणस्थान तक के तथा लोभ की सूक्ष्म किट्टियों के तनुरागि-सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवर्ती जीव उदीरक हैं। विशेषार्थ-तैजससप्तक, वर्णादिबीस, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और अगुरुलधु रूप नामकर्म की तेतीस ध्र वोदया प्रकृतियों की उदीरणा के स्वामी सयोगिकेवलीगुणस्थान तक में वर्तमान समस्त जीव हैं।
चरमावलिका छोड़कर सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानवर्ती जीव लोभ सम्बन्धी सूक्ष्म किट्टियों की उदीरणा के स्वामी हैं। चरमावलिका यह क्षपकौणि में उदयावलिका है और वह सकल करण के अयोग्य है तथा उसके ऊपर दलिक नहीं हैं एवं उपशमश्रेणि में अन्तरकरण से ऊपर की दूसरी स्थिति में दलिक होते हैं, परन्तु उनकी उदीरणा भी
१ आहा क शरीर की विकुर्वणा करके उस शरीर योग्य समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त होकर अपमत्तगुणस्थान में जाता है और वहाँ उसको अट्ठाईस, उनतीस प्रकृतिक ये दो नामक के उदयमान होते हैं। जिससे आहारकद्विक की उदीरणा अप्रमत्तसंपत भी करता है, लेकिन अल्प होने से उसकी
: विवक्षा न की हो, ऐसा प्रतीत होता है। ........ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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