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पंचसंग्रह : ८
'कषाययुक्त अथवा कषायवियुक्त जिस वीर्यप्रवृत्ति द्वारा उदयावलिका से बहिवर्ती-ऊपर के स्थानों में वर्तमान कर्मपरमाणु उत्कीर्ण करके-खींचकर उदयावलिका में निक्षिप्त किये जाते हैं, अर्थात् उदयावलिका के स्थानों में रहे हुए दलिकों के साथ भोगने योग्य किये जाते हैं, उसे उदीरणा कहते हैं।
वह उदीरणा प्रकृति, स्थिति आदि के भेद से चार प्रकार की है। यथा- प्रकृत्युदीरणा, २ स्थित्युदीरणा, ३ अनुभागोदीरणा और ४ प्रदेशोदीरणा तथा उदीरणा के ये चारों प्रकार भी प्रत्येक मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृति के भेद से दो-दो प्रकार के हैं। मूल प्रकृतियां आठ और उत्तर प्रकृतियां एक सौ अट्ठावन हैं।
इस तरह उदीरणा का लक्षण और भेदों का प्रतिपादन करने के पश्चात् अब साद्यादि प्ररूपणा करते हैं। उसके दो प्रकार हैं-१ मूल प्रकृतिविषयक और २ उत्तर प्रकृतिविषयक। इन दोनों में से पहले मूल कर्म-प्रकृतिविषयक साद्यादि की प्ररूपणा करते हैं। मूल प्रकृतियों की साधादि प्ररूपणा
वेयणीय मोहणीयाण होइ चउहा उदीरणाउस्स । साइ अधुवा सेसाण साइवज्जा भवे तिविहा ॥२॥ शब्दार्थ-वेयणीय मोहणीयाण-वेदनीय और मोहनीय की, होइ-है, चउहा- चार ! कार की, उदीरणाउस्स-उदीरणा आयु की, साइ अधुवा--- सादि और अध्र व, सेसाण-- शेष की, साइवज्जा---आदि के सिवाय, भवे-है, तिविहा--तीन प्रकार की।
गाथार्थ-वेदनीय और मोहनीय की उदीरणा चार प्रकार की है। आयु की सादि और अध्रव तथा शेष कर्मों की सादि के
सिवाय तीन प्रकार की है। १ उदयावलिबाहिरिल्लठिईहितो कसाय सहिएणं असहिएणं वा जोगसणणं
करणेणं दलियमोकड्ढिय उदयावलियाए पवेसणं उदीरणत्ति ।
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